Thursday, 4 March 2010

आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे - मिर्ज़ा गालिब


आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़्याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे

फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़ता दरिया कहें जिसे

दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे

"ग़ालिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

संकलन:प्रवीण कुलकर्णी



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