Monday, 1 March 2010

शिवाजी की नौसैनिक परंपरा


पृथ्वी तल पर 2/3 भाग जल व शेष भूमि है, इसी से जल का महत्व स्पष्ट होता है। मात्र यातायात ही नहीं, एक युद्धक्षेत्र से दूसरे तक, सेनाओं का स्थानांतर, जल से होकर ही होता है। 4000 मील लंबे भारतीय समुद्र तट को देखते हुए नौसेना का महत्व स्पष्ट है। मध्ययुगीन भारत में, शिवाजी पहले राजा थे, जिन्होंने नौसेना का महत्व देखकर उसका निर्माण किया।

इस विषय में उनकी दृष्टि इतनी पैनी थी कि उन्होंने आदेश दिए थे कि विदेशी साहूकार-व्यापारी उदाहरणार्थ फिरंगी, फरांशिस, वलंदेज, डिंगमार (आधुनिक अँगरेज, फ्रांसीसी, हॉलैंडवासी, डेनमार्कवासी) इत्यादि को समुद्र तट पर स्थान न दिया जाए। देना ही हो, तो तट से दूर, भूमि पर स्थान देकर, इन्हें कड़ी निगरानी में रखा जाए, क्योंकि तट पर रहकर ये अन्य से मिल राज्य के लिए खतरा बन सकते हैं व फिर इन्हें तट से हटाना मुश्किल होता है।

शिवाजीकालीन नीति-निर्देश सिद्धांत 'आज्ञापत्रों' में हैं। इनका लेखक विवादास्पद है, परंतु रचना का गांभीर्य बताता है कि लेखक वरिष्ठ मंत्री के स्तर का होगा। एक मत तो यह भी है कि पूना से आग्रा तक औरंगजेब के सामने उपस्थित होने हेतु यात्रा (मार्च 1666) में, भविष्य अनिश्चित जानकर, उन्होंने अपने लिपिकों को जो बिंदु बताए, उन्ही का विकसित रूप यह श्रेष्ठ रचना है।

रचयितानुसार नौसेना स्वतंत्र राज्योग ही है। कहा गया है, 'जैसे अश्वदल से भूमि पर राज्य वैसे नौसेना से जल पर राज्य/वर्चस्व' होता है। नौसेना निर्माण हेतु कहा गया है कि गतिशील पोत मँझले आकार के हों ताकि व्यय सीमा में रहे। तेज हवा से ही चलने वाले युद्धक पोत बनाना जरूरी नहीं है। स्पष्ट है शिवाजी महाराज का जोर छोटे व तेज गति वाले पोतों को बनाने पर था।

सबसे गंभीर निर्देश नौसेना के वेतन के लिए है। वह यह कि यह वेतन बंदरगाहों की 'पैदास्त' (तट कर) में से न दें, क्योंकि इससे नौसेना व तटकर अधिकारी मिलकर व्यापारियों से अधिक वसूलेंगे व व्यापार को हानि होगी। दूसरा अहित यह होगा कि नौसेना नागरिक प्रशासन के संपर्क में होगी, जिसका प्रभाव नौसेना के अनुशासन पर होगा। अतः उसे स्थानीय प्रजा से दूर रखकर, वेतन सीधे राजकोष से दें।

नौसेना अधिकारियों में हर पाँच जहाजों पर एक अधिकारी 'सूबा' रखें। इनके ऊपर एक अधिकारी 'सरसूबा' हो। जहाजों पर छोटी-बड़ी तोपें, गोली-बारूद, हथगोले व वीर सिपाही रखें, जो इन साधनों का उपयोग संकट में कर सकें।

समुद्री द्वीपों व खाड़ियों के मुहाने पर सुदृढ़ जलदुर्ग बनाकर वर्षाकाल के कुछ पूर्व ही नौसेना की छावनी बनाएँ। हर वर्ष छावनी नए स्थान पर करें, क्योंकि सारी सावधानी के बाद भी, नौसेना से कुछ 'उपद्रव' प्रजा को संभव है ही। अतः छावनी 'प्रतिवर्षी' 'नूतन बंदरीं' करें-वह भी जहाँ जलदुर्ग हो, जिसके पीछे खाड़ी हो और खाड़ी का जल शाखाओं में बँटकर और जमीन के अंदर आए।

जलदुर्ग के भय से, शत्रु खाड़ी के अंदर घुसकर, हमारे जहाजों को हानि पहुँचाने की हिम्मत नहीं करेगा। नौसेना अधिकारी स्वयं परिवार सहित दो महीने छावनी में रहकर, नौसेना की निगरानी करें व आवश्यक वस्तुएँ शासन से माँगकर संग्रह कर लें। परंतु प्रदेश में से सीधे वस्तुएँ लेकर नुकसान हो, ऐसा न करें। अतिरिक्त वस्तुएँ बाहर से खरीदकर संग्रह कर लें क्योंकि परदेशी वस्तु मँगाई जाए तभी आती है, ऐसी मान्यता बन जाए, तो राज्य का प्रभाव, प्रतिष्ठा क्या रहेगी?


शिवाजी ने नौसेना निर्माण व उसके नित्य कार्य में यह ध्यान रखा था कि राज्यकार्य संपन्न होते समय प्रजा को रंचमात्र दुःख न हो। यह प्रशासकीय नीति उनकी दूरदर्शिता व लोककल्याण मनोवृत्ति का प्रतीक है।

नौसेना के युद्धक जहाजों के निर्माण हेतु विदेशियों, विशेषतः पुर्तगालियों की सेवाएँ मराठों ने लीं। काम अच्छा हो, इसलिए विदेशी तंत्रज्ञ को घर जैसा लगे व प्रेम रहे, ऐसी स्थिति होना आवश्यक बताकर नौसेना अधिकारियों को आदेश थे कि परदेशी व्यक्ति का लगाव बने ऐसे उसके साथ बरतें (परदेशी माणूस माया लेगे ऐसें बर्तावें)।

नौसेना हेतु सागौन की मजबूत, लंबी व मोटी लकड़ियाँ आवेदन करके शासन से लें। अतिरिक्त लगे वह अन्य स्थान से मँगवाकर संग्रह कर लें। 'स्वराज्य' (शिवाजी का राज्य) के आम व कटहल ये वृक्ष भी नौसेना निर्माण हेतु काम के हैं, परंतु उन्हें हाथ भी न लगाएँ, क्योंकि ये वृक्ष प्रजा ने शिशु जैसे मानकर यत्न से बड़े किए हैं। उन्हें तोड़ने से प्रजा के दुःख का पार नहीं होगा।

अतः ऐसा न होने दें, क्योंकि किसी एक को दुःख देकर जो कार्य होता है, वह कार्य व उसका कर्ता 'स्वल्पकाल' में ही नष्ट होता है व अंततः राज्यकर्ता पर ही दोष आता है- अतः प्रजा को दुःख देकर वृक्ष न काटें। कदाचित कोई वृक्ष अतिजीर्ण होकर, मालिक के काम का न रहे, तो भी उसके मालिक को राजी करके, द्रव्य देकर, उसके संतोष से तोड़ ले जाएँ। ऐसे मामलों में जोर-जबरदस्ती बिलकुल न करें (बलात्कार सर्वथा न कराबा)।

उपरोक्त शब्दों से ज्ञात होता है कि शिवाजी ने नौसेना निर्माण व उसके नित्य कार्य में यह ध्यान रखा था कि राज्यकार्य संपन्न होते समय प्रजा को रंचमात्र दुःख न हो। यह प्रशासकीय नीति उनकी दूरदर्शिता व लोककल्याण मनोवृत्ति का प्रतीक है। शिवाजी की नौसैनिक दूरदर्शिता अत्यंत श्रेष्ठ स्तर की थी। उन्होंने महाराष्ट्र तट पर विजयदुर्ग, सिंधुदुर्ग, स्वर्णदुर्ग व पद्मदुर्ग जैसे महत्वपूर्ण जलदुर्गों का निर्माण करके अपने नौसैनिक प्रतिस्पर्धी विदेशियों जैसे जंजीरा के सिद्दी, पुर्तगाली व विशेषतः अँगरेजों को नियंत्रण में रखा जो (अँगरेज), सिद्दीयों को खुले व छुपे रूप से शिवाजी के विरुद्ध सहायता देते थे।

अंततः शिवाजी ने अँगरेजों का राजापुर (महाराष्ट्र) स्थित केंद्र नष्ट कर दिया (1661)। शिवाजी की नौसैनिक परंपरा में ही मराठों ने आगे सशक्त नौसेना का निर्माण किया जिसके पराक्रमी नौसेनाध्यक्ष/ सेनापति (दर्यासारंग) कान्होजी आंग्रे थे, जिनकी समुद्र पर इतनी धाक थी कि अँगरेज समुद्र पर मराठों से दूर ही रहते थे। वीर कान्होजी आंग्रे को सम्मानित करने हेतु भारतीय नौसेना का एक पोत, 'कान्होजी आंग्रे' भी है। यह स्थिति शिवाजी के बाद भी थी, जिसका श्रेय शिवाजी को है।


पृथ्वी तल पर 2/3 भाग जल व शेष भूमि है, इसी से जल का महत्व स्पष्ट होता है। मात्र यातायात ही नहीं, एक युद्धक्षेत्र से दूसरे तक, सेनाओं का स्थानांतर, जल से होकर ही होता है। 4000 मील लंबे भारतीय समुद्र तट को देखते हुए नौसेना का महत्व स्पष्ट है। मध्ययुगीन भारत में, शिवाजी पहले राजा थे, जिन्होंने नौसेना का महत्व देखकर उसका निर्माण किया।

इस विषय में उनकी दृष्टि इतनी पैनी थी कि उन्होंने आदेश दिए थे कि विदेशी साहूकार-व्यापारी उदाहरणार्थ फिरंगी, फरांशिस, वलंदेज, डिंगमार (आधुनिक अँगरेज, फ्रांसीसी, हॉलैंडवासी, डेनमार्कवासी) इत्यादि को समुद्र तट पर स्थान न दिया जाए। देना ही हो, तो तट से दूर, भूमि पर स्थान देकर, इन्हें कड़ी निगरानी में रखा जाए, क्योंकि तट पर रहकर ये अन्य से मिल राज्य के लिए खतरा बन सकते हैं व फिर इन्हें तट से हटाना मुश्किल होता है।

शिवाजीकालीन नीति-निर्देश सिद्धांत 'आज्ञापत्रों' में हैं। इनका लेखक विवादास्पद है, परंतु रचना का गांभीर्य बताता है कि लेखक वरिष्ठ मंत्री के स्तर का होगा। एक मत तो यह भी है किकि पूना सेआग्रा तक औरंगजेब के सामने उपस्थित होने हेतु यात्रा (मार्च 1666) में, भविष्य अनिश्चित जानकर, उन्होंने अपने लिपिकों को जो बिंदु बताए, उन्ही का विकसित रूप यह श्रेष्ठ रचना है।

रचयितानुसार नौसेना स्वतंत्र राज्योग ही है। कहा गया है, 'जैसे अश्वदल से भूमि पर राज्य वैसे नौसेना से जल पर राज्य/वर्चस्व' होता है। नौसेना निर्माण हेतु कहा गया है कि गतिशील पोत मँझले आकार के हों ताकि व्यय सीमा में रहे। तेज हवा से ही चलने वाले युद्धक पोत बनाना जरूरी नहीं है। स्पष्ट है शिवाजी महाराज का जोर छोटे व तेज गति वाले पोतों को बनाने पर था।

सबसे गंभीर निर्देश नौसेना के वेतन के लिए है। वह यह कि यह वेतन बंदरगाहों की 'पैदास्त' (तट कर) में से न दें, क्योंकि इससे नौसेना व तटकर अधिकारी मिलकर व्यापारियों से अधिक वसूलेंगे व व्यापार को हानि होगी। दूसरा अहित यह होगा कि नौसेना नागरिक प्रशासन के संपर्क में होगी, जिसका प्रभाव नौसेना के अनुशासन पर होगा। अतः उसे स्थानीय प्रजा से दूर रखकर, वेतन सीधे राजकोष से दें।

नौसेना अधिकारियों में हर पाँच जहाजों पर एक अधिकारी 'सूबा' रखें। इनके ऊपर एक अधिकारी 'सरसूबा' हो। जहाजों पर छोटी-बड़ी तोपें, गोली-बारूद, हथगोले व वीर सिपाही रखें, जो इन साधनों का उपयोग संकट में कर सकें।

समुद्री द्वीपों व खाड़ियों के मुहाने पर सुदृढ़ जलदुर्ग बनाकर वर्षाकाल के कुछ पूर्व ही नौसेना की छावनी बनाएँ। हर वर्ष छावनी नए स्थान पर करें, क्योंकि सारी सावधानी के बाद भी, नौसेना से कुछ 'उपद्रव' प्रजा को संभव है ही। अतः छावनी 'प्रतिवर्षी' 'नूतन बंदरीं' करें-वह भी जहाँ जलदुर्ग हो, जिसके पीछे खाड़ी हो और खाड़ी का जल शाखाओं में बँटकर और जमीन के अंदर आए।

जलदुर्ग के भय से, शत्रु खाड़ी के अंदर घुसकर, हमारे जहाजों को हानि पहुँचाने की हिम्मत नहीं करेगा। नौसेना अधिकारी स्वयं परिवार सहित दो महीने छावनी में रहकर, नौसेना की निगरानी करें व आवश्यक वस्तुएँ शासन से माँगकर संग्रह कर लें। परंतु प्रदेश में से सीधे वस्तुएँ लेकर नुकसान हो, ऐसा न करें। अतिरिक्त वस्तुएँ बाहर से खरीदकर संग्रह कर लें क्योंकि परदेशी वस्तु मँगाई जाए तभी आती है, ऐसी मान्यता बन जाए, तो राज्य का प्रभाव, प्रतिष्ठा क्या रहेगी?


शिवाजी ने नौसेना निर्माण व उसके नित्य कार्य में यह ध्यान रखा था कि राज्यकार्य संपन्न होते समय प्रजा को रंचमात्र दुःख न हो। यह प्रशासकीय नीति उनकी दूरदर्शिता व लोककल्याण मनोवृत्ति का प्रतीक है।

नौसेना के युद्धक जहाजों के निर्माण हेतु विदेशियों, विशेषतः पुर्तगालियों की सेवाएँ मराठों ने लीं। काम अच्छा हो, इसलिए विदेशी तंत्रज्ञ को घर जैसा लगे व प्रेम रहे, ऐसी स्थिति होना आवश्यक बताकर नौसेना अधिकारियों को आदेश थे कि परदेशी व्यक्ति का लगाव बने ऐसे उसके साथ बरतें (परदेशी माणूस माया लेगे ऐसें बर्तावें)।

नौसेना हेतु सागौन की मजबूत, लंबी व मोटी लकड़ियाँ आवेदन करके शासन से लें। अतिरिक्त लगे वह अन्य स्थान से मँगवाकर संग्रह कर लें। 'स्वराज्य' (शिवाजी का राज्य) के आम व कटहल ये वृक्ष भी नौसेना निर्माण हेतु काम के हैं, परंतु उन्हें हाथ भी न लगाएँ, क्योंकि ये वृक्ष प्रजा ने शिशु जैसे मानकर यत्न से बड़े किए हैं। उन्हें तोड़ने से प्रजा के दुःख का पार नहीं होगा।

अतः ऐसा न होने दें, क्योंकि किसी एक को दुःख देकर जो कार्य होता है, वह कार्य व उसका कर्ता 'स्वल्पकाल' में ही नष्ट होता है व अंततः राज्यकर्ता पर ही दोष आता है- अतः प्रजा को दुःख देकर वृक्ष न काटें। कदाचित कोई वृक्ष अतिजीर्ण होकर, मालिक के काम का न रहे, तो भी उसके मालिक को राजी करके, द्रव्य देकर, उसके संतोष से तोड़ ले जाएँ। ऐसे मामलों में जोर-जबरदस्ती बिलकुल न करें (बलात्कार सर्वथा न कराबा)।

उपरोक्त शब्दों से ज्ञात होता है कि शिवाजी ने नौसेना निर्माण व उसके नित्य कार्य में यह ध्यान रखा था कि राज्यकार्य संपन्न होते समय प्रजा को रंचमात्र दुःख न हो। यह प्रशासकीय नीति उनकी दूरदर्शिता व लोककल्याण मनोवृत्ति का प्रतीक है। शिवाजी की नौसैनिक दूरदर्शिता अत्यंत श्रेष्ठ स्तर की थी। उन्होंने महाराष्ट्र तट पर विजयदुर्ग, सिंधुदुर्ग, स्वर्णदुर्ग व पद्मदुर्ग जैसे महत्वपूर्ण जलदुर्गों का निर्माण करके अपने नौसैनिक प्रतिस्पर्धी विदेशियों जैसे जंजीरा के सिद्दी, पुर्तगाली व विशेषतः अँगरेजों को नियंत्रण में रखा जो (अँगरेज), सिद्दीयों को खुले व छुपे रूप से शिवाजी के विरुद्ध सहायता देते थे।

अंततः शिवाजी ने अँगरेजों का राजापुर (महाराष्ट्र) स्थित केंद्र नष्ट कर दिया (1661)। शिवाजी की नौसैनिक परंपरा में ही मराठों ने आगे सशक्त नौसेना का निर्माण किया जिसके पराक्रमी नौसेनाध्यक्ष/ सेनापति (दर्यासारंग) कान्होजी आंग्रे थे, जिनकी समुद्र पर इतनी धाक थी कि अँगरेज समुद्र पर मराठों से दूर ही रहते थे। वीर कान्होजी आंग्रे को सम्मानित करने हेतु भारतीय नौसेना का एक पोत, 'कान्होजी आंग्रे' भी है। यह स्थिति शिवाजी के बाद भी थी, जिसका श्रेय शिवाजी को है।


वेब दुनियासे
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी


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हंस-दमयंती

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