Thursday, 18 March 2010

कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे - मिर्ज़ा गालिब


कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझसे

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझसे

वो बद ख़ूँ और मेरी दास्तन-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवनी है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे

सँभलने दे मुझे ए नाउमीदी, क्या क़यामत है
कि दामाने ख़्याले यार छूता जाये है मुझसे

तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझसे

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझसे

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे

संकलक:प्रवीण कुलकर्णी








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हंस-दमयंती

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