Saturday 20 March 2010

मिर्ज़ा गालिब


दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये

ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये

रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये

ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये

तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये

उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये

हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये

कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये

की वफ़ा हम से तो ग़ैर उस को जफ़ा कह्‌ते हैं
होती आई है कि अच्‌छों को बुरा कह्‌ते हैं

आज हम अप्‌नी परेशानी-ए ख़ातिर उन से
कह्‌ने जाते तो हैं पर देखिये क्‌या कह्‌ते हैं

अग्‌ले वक़्‌तों के हैं यह लोग उंहें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़्‌मह को अन्‌दोह-रुबा कह्‌ते हैं

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्‌सत ग़श से
और फिर कौन-से नाले को रसा कह्‌ते हैं

है परे सर्‌हद-ए इद्‌राक से अप्‌ना मस्‌जूद
क़िब्‌ले को अह्‌ल-ए नज़र क़िब्‌लह-नुमा कह्‌ते हैं

पा-ए अफ़्‌गार पह जब से तुझे रह्‌म आया है
ख़ार-ए रह को तिरे हम मिह्‌र-गिया कह्‌ते हैं

इक शरर दिल में है उस से कोई घब्‌राएगा क्‌या
आग मत्‌लूब है हम को जो हवा कह्‌ते हैं

देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्‌वत क्‌या रन्‌ग
उस की हर बात पह हम नाम-ए ख़ुदा कह्‌ते हैं

महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिक्वा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ

महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिक्वा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ


संकलक:प्रवीण कुलकर्णी

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