Friday 5 March 2010

उपेक्षित और गुमनाम ‘एक दर्शन’


लोकायत दर्शन या चार्वाक दर्शन हमारे देश में नास्तिक विचारधारा माना जाता रहा है। चार्वाक मुनि के लोकायत दर्शन के साथ जितना अन्याय हुआ है, उतना अन्याय इस देश में किसी विचारधारा या दर्शन सम्प्रदाय के साथ नहीं हुआ।


इस दर्शन की सर्वत्रा खिल्ली उड़ाई गई है और किसी विचार या दर्शन की खिल्ली उड़ाई जाए, उससे ज्यादा बड़ा अपमान उसका हो ही नहीं सकता। पूरे भारतीय समाज में चार्वाक दर्शन को इस हद तक उपेक्षा और तिरस्कार का पात्र बना दिया गया कि उसका अध्ययन-अध्यापन पिछली अनेक सदियों में किसी भी विद्यापीठ में तरीके से हुआ ही नहीं है। नतीजा यह है कि आज आपको भारत की इस अतिमहत्वपूर्ण विचारधारा का कोई प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं मिलता, जिसकी सहायता से चार्वाक मत पर कुछ भी अधिकृत रूप से लिखा जा सके। आप किसी विचार से सहमत या असहमत ही तो हो सकते हैं। पर आप इस हद तक असहमत हो जाएं कि उस विचार का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए तो उसका कोई बड़ा कारण होना चाहिए।

सोचने पर कुछ कारण समझ में आते हैं। एक कारण चार्वाकवादियों का अपना व्यवहार रहा होगा। आखिर कुछ तो उनकी ओर से भी ऐसा हुआ होगा जिसने उनके अस्तित्व को इस हद तक संकट में डाल दिया। चार्वाकवादियों के बारे में एक श्लोक भारतीय समाज में लोकप्रिय है- ‘यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।’ श्लोक कहां का है, पता नहीं। किसने लिखा, पता नहीं। पर उसका सन्देश काफी स्पष्ट है।

श्लोक का अर्थ है (कि चार्वाकवादी ऐसा मानते हैं कि) जब तक जियो सुख से जियो, उधार का पैसा लेकर भी खूब खाओ पियो, जैसे ही शरीर मर जाने पर आग की भेंट चढ़ कर राख हो गया तो फिर यह दुनिया किसने देखी है? इस श्लोक में चार्वाक दर्शन का यह सिद्धान्त तो पता चल ही रहा है कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे और मृत्यु को ही जीवन का अन्त मानते थे। पर इस सिद्धान्त को मानने की वजह से जरूर कुछ जाने-माने चार्वाकवादियों ने समाज की व्यवस्था को नष्ट करने का, या उसका अपने स्वार्थ में दुरुपयोग करने का काम अनेकश: किया होगा जिससे लोगों में उनके प्रति अनास्था और उपेक्षा का भाव पैदा हो गया होगा जो क्रमश: तिरस्कार और उपहास में बदलता चला गया होगा।

दूसरा कारण यह समझ में आता है कि नैमिषारण्य की महासंगोष्ठी के बाद चार्वाक दर्शन का विकास रुक गया होगा। नैमिषारण्य की ऐतिहासिक महासंगोष्ठी के बाद भारत का पूरा व्यक्तित्व और चरित्र ही क्रमश: बदलता चला गया। उसके बाद जहां दूसरी दार्शनिक धाराओं का क्रमश: विकास होता चला गया वहां चार्वाकवादियों के पास विकास के अवसर थे ही नहीं। यह शरीर या प्राण ही आत्मा है, शरीर का नष्ट हो जाना अर्थात् मृत्यु ही मोक्ष है, ईश्वर का अस्तित्व कोरी कल्पना है, ऐसी और इस तरह की धारणाएं बना लेने के बाद बौद्धिक विकास के लिए कोई अवसर ही नहीं बचा रहता। बहस के हर मोड़ पर अगर आप नकारात्मक पूर्णविराम लगाते चले जाएंगे तो विकास की और स्वीकार्यता की सम्भावनाएं कहां बची रह जाती हैं?

पर सबसे बड़ा कारण शायद यह रहा था कि चार्वाकों के पास पूरा जीवन दर्शन नहीं था। पूरे जीवन दर्शन से संबंध उसकी व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार्यता से है। भारत में बौद्ध दर्शन की असफलताओं के कारणों में एक कारण यह भी था कि वह सामाजिक धरातल पर वैसा व्यवहार्य नहीं हो पाया जैसे जैन दर्शन और दूसरे दर्शन हो पाए। कोई भी समाज कोरी बौद्धिकता से, जैसी कि बौद्ध दर्शन में थी या कोरी वाचालता से, जैसी कि चार्वाकों ने अक्सर दिखाई होगी, नहीं चलता। एक समाज होता है, उसमें एक परिवार प्रणाली होती है, एक राष्ट्रीय चरित्र होता है। अगर कोई दर्शन मनुष्य जीवन के इन सभी अंगों को विचार और नैतिकता की ऊर्जा नहीं दे पाता तो उसका चल पाना या लम्बे समय तक स्वीकार्य बने रह पाना सम्भव ही नहीं होता। चार्वाक दर्शन अपनी पारिवारिक और सामाजिक अपूर्णता का शिकार भी कहीं न कहीं हुआ होगा।

चार्वाक दर्शन के इस देश से अवसान के ये वैध कारण नजर आते हैं। पर एक अवैध या अर्ध-वैध कारण से जो उसका निरादार इस देश में हुआ, उसके जरिए चार्वाक दर्शन से सचमुच अन्याय हो गया। जैसा कि हमने प्रारम्भ में कहा, चार्वाक दर्शन हमारे यहां नास्तिक दर्शन के रूप में कुख्यात हो गया और इसलिए लोगों के बीच उसकी मान्यता खत्म हो गई। चार्वाक दर्शन को नकारने का हम इसे अवैध कारण भी मानते हैं और अर्ध-वैध भी। पहले अवैधता की चर्चा कर ली जाए। उस अवैधता का संबंधा नास्तिक शब्द के अर्थ से जुड़ा है। नास्तिक और अस्तिक दो शब्द है। अस्ति अर्थात् है, जो ऐसा माने वह आस्तिक। नास्ति अर्थात् नहीं है, जो ऐसा माने वह नास्तिक।

वैसे तो ये दोनों शब्द किसी भी सन्दर्भ में प्रयोग में आ सकते हैं, पर दार्शनिक और सामाजिक धारातल पर ये दोनों खास अर्थों में रूढ़ हो चुके हैं। भारतीय दर्शन में जो वेद को प्रमाण माने, वह आस्तिक और जो वेद को प्रमाण मानने से इनकार कर दे वह नास्तिक। नास्तिको वेदनिन्दक: यानी जो वेद की निंदा करता है वह नास्तिक है, दर्शन क्षेत्रों में हमारे यहां यह उक्ति बड़ी प्रसिद्ध रही है। यहां वेद का संबंध चारों वेदो से ही नहीं है, बल्कि ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों को भी परम्परा से ‘वेद’ शब्द का हिस्सा मान लिया गया है।

इस आधार पर हमारे देश में चार्वाक, जैन और बौद्ध नास्तिक दर्शन सम्प्रदाय माने जाते हैं क्योंकि वे वेदों की बातों को प्रमाण मानने को तैयार नहीं हैं। उसके विपरीत न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त आस्तिक दर्शन सम्प्रदाय माने जाते हैं क्योंकि वे वेदों को प्रमाण मानते हैं। यानी दो परम्पराएं हैं, वेद-अनुप्राणित और स्वत: अनुप्राणित। ये दोनों परम्पराएं कोई आज या नैमिषारण्य की महासंगोष्ठी के बाद नहीं पैदा हुईं। वेदों की मंत्र रचना के साथ ही साथ वेद-विरोधी और वेद की उपेक्षा करने वाली धाराएं भी इस देश में शुरू से रही थीं।

नास्तिक अर्थात् वेद-विरोधी दर्शन होने के कारण अगर चार्वाक दर्शन को बौद्धिक परम्परा से बाहर कर दिया गया है तो हम इसे अवैध कारण इसलिए मानते हैं क्योंकि जैन और बौद्ध जैसे दूसरे इस तरह के नास्तिक दर्शन भी इस देश में खूब फले-फूले हैं और उनका बौद्धक विकास अब भी खूब हो रहा है। पर इसी नास्तिक शब्द के दूसरे सामाजिक-धार्मिक अर्थ की जिस वजह से चार्वाक दर्शन का अवसान इस देश में हुआ, उसे हम अर्ध-वैध कारण कहना चाहते हैं। सामाजिक-धार्मिक सन्दर्भों में जो ईश्वर को मानता है वह आस्तिक और जो नहीं मानता वह नास्तिक। चार्वाक ईश्वर को नहीं मानते, इसलिए भी चार्वाक दर्शन नास्तिक दर्शन है। ईश्वर को न मानना इस देश में कभी अपराध नहीं रहा। ईश्वर न मानने वालों को इस देश में कभी फांसी नहीं दी गई जैसा कुछ दूसरे धर्मों को मानने वाले देशों में दी जाती रही है।

एक न्याय दर्शन को छोड़ दें तो किसी भी दर्शन सम्प्रदाय में, चाहे वह नास्तिक हो या आस्तिक, ईश्वर पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया। बल्कि योग की तुलना में सांख्य को निरीश्वर सांख्य ही कहा गया, जबकि योग को सेश्वर सांख्य कह दिया गया। पर नोट करने लायक बात यह है कि किसी भी दर्शन सम्प्रदाय ने ईश्वर पर वैसी चोट नहीं की जैसी चार्वाक ने की। यहां तक भी मामला सहन करने की सीमा में रहा होगा। पर नैमिषारण्य की महासंगोष्ठी के बाद देश जिस तरह पौराणिकों के बनाए अवतारवादी माहौल में रहने लगा और एक के बाद एक आए दिन छोटे-बड़े भक्ति आन्दोलनों के कारण देश का वातावरण जिस कदर भक्तिमय और धर्ममय हो गया, वैसे में ईश्वर विरोधी चार्वाक दर्शन का अस्तित्व बचे रहना एक चमत्कार ही माना जाता। भारत जैसे हर मत और विचार को आदर देने वाले देश में चार्वाक दर्शन के दर्शन-सम्प्रदाय के रूप में न उभर पाने के इस कारण को हम नितान्त अवैध भी नहीं मान सकते।

चार्वाक दर्शन का ऐसा अवसान हुआ कि उसके इतिहास और उसके साहित्य का पता भी देश को खास नहीं रहा। चार्वाक दर्शन यह नाम उसके प्रवर्तक चार्वाक मुनि के नाम से ही है। वैसे शास्त्रीय परम्परा में इसका नाम लोकायत दर्शन है जिसका अर्थ है कि यह दर्शन अन्य दर्शनों के समान परलोक पर ज्यादा ध्यान देने के बजाए इस लोक पर ही ज्यादा आयत यानी आश्रित है। इसके अलावा ‘लोकायतिक’ और ‘बाह्य’ ये दो नाम भी इसके प्राप्त होते हैं। चार्वाक का नाम महाभारत में भी मिलता है। रामायण में लोकायतिकों का उल्लेख असत्य बातों का प्रचार करने वालों के रूप में मिलता है। (अयोध्या काण्ड 100.38-39)। वैसे एक मान्यता यह भी है कि उसके आद्य प्रवर्तक बृहस्पति हैं। ये बृहस्पति कौन हैं, कुछ स्पष्ट नहीं है। हमारी परम्परा में बृहस्पति एक ऐसा नाम है जिसे अनेकानेक विद्याओं का प्रवर्तक माना जाता है।

परन्तु बृहस्पति के नाम से लोकायत दर्शन के जो सूत्र मिलते हैं, उनके आधार पर जरूर एक-दो रोचक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। कुछ सूत्र इस तरह हैं-

1. पृथिव्यापस्तेजो तत्वानि – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार ही तत्व हैं (पांच नहीं जैसा कि अन्य प्राय: सभी दर्शन मानते हैं।)

2. तेभ्यश्चैतन्यम् – ये चार भूत ही जब मिल जाते हैं तो प्राणी में चेतना आ जाती है।

3. भूतान्येव चेतयन्ते- ये चार भूत ही चेतना पैदा करते हैं (जबकि शेष दर्शन चैतन्य को इससे अलग मानते हैं)।

4. चैतन्यविशिष्ट: काय: पुरुष: – चेतना से युक्त शरीर ही पुरुष यानी आत्मा है (जबकि दूसरे दर्शन ऐसा नहीं मानते। वे आत्मा को अतीन्द्रिय मानते हैं)।

5. परलोकिनो(भावात् परलोकाभाव: – चूंकि परलोक में रहने वाले कोई नहीं होते, इसलिए परलोक भी नहीं होता।

6. मरणमेवापवर्ग: – मरण ही अपवर्ग यानी मोक्ष है।

7. अर्थकामौ पुरुषार्थ – दो ही पुरुषार्थ हैं- अर्थ और काम (जबकि शेष दर्शन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चार संख्या तक पुरुषार्थ मानते हैं)।

8. प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् – प्रमाण एक ही है, प्रत्यक्ष (जबकि अन्य दर्शनों में अनुमान, उपमान और शब्द को भी प्रमाण माना गया है)।

9. लौकिको मार्गो(नुसर्तव्य: – सामान्य लोगों के मार्ग का अनुकरण करना चाहिए।

ऐसे ही चार-पांच सूत्र हैं। बृहस्पति द्वारा लिखे बताए जाने वाले ये सूत्र कहीं एक स्थान पर नहीं मिलते। दर्शनग्रन्थों में जहां-तहां फैले उन वाक्यों को विद्वानों ने इकट्ठा कर लिया है। इनके आधार पर रोचक निष्कर्ष निकाल सकते हैं। सूत्रों को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि किसी बड़े गहरे विचार-मन्थन के बाद उन सूत्रों की रचना की गई है। लगता है कि जैसे चार्वाक विरोधियों ने चार्वाकों का मजाक उड़ाने के लिए जहां जरूरत पड़ी वहां कोई सूत्र बना लिया और बृहस्पति के नाम से उदृत कर फिर चार्वाक मत का खण्डन कर दिया। अन्यथा ऊपर लिखे सूत्रों में संख्या 5 और 9 का कोई खास आधार हमें नजर नहीं आता कि क्यों बृहस्पति ने ये हास्यास्पद सूत्र बनाए होंगे।

एक निष्कर्ष यह भी निकल आता है भारतीय दर्शनों के उपलब्ध फ्रेमवर्क के आधार पर ही जब जिसे जरूरत पड़ी उसने सूत्र बनाए और फिर उस आधार पर चार्वाक दर्शन का खण्डन भी कर दिया। मसलन सूत्र संख्या 1, 7 और 8 सीधे-सीधे उपलब्ध दार्शनिक फ्रेमवर्क के सन्दर्भ में चार्वक विरोधियों द्वारा चार्वाकों का खण्डन करने के लिए कल्पित कर लिए गए लगते हैं। एक निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि बेशक ये सूत्र उस तरह से न मिलते हों, पर दार्शनिकों के बीच चार्वाक दर्शन के विभिन्न विषयों पर दृष्टिकोण गोष्ठी-परम्परा में प्रचलित हों और उसी आधार पर किसी चार्वाकवादी या चार्वाकविरोधी ने इन सूत्रों की रचना कर उन्हें बृहस्पति के नाम से चला दिया हो- चार्वाकवादी ने अपने दर्शन को महिमामंडित करने के लिए तो चार्वाक-विरोधी ने अपने चार्वाक-खण्डन की चमक को बढ़ाने के लिए।

जो भी हो, चार्वाक दर्शन के अवसान से देश को वही नुकसान हुआ जो किसी भी विचार के अविकसित या अकाल मृत्युग्रस्त हो जाने से होता है। प्राणों को ही आत्मा मानने वालों का एक बड़ा सम्प्रदाय इस देश में था जो कई सदियों तक देश की विचारधारा पर छाया रहा। आगे चलकर प्राण अथवा वायु को पांच महाभूतों में एक मानकर आत्मवादियों या ब्रह्मवादियों ने उसका समाहार अपनी विचारधारा में कर लिया। पर रैक्व हों या पिप्पलाद, वे प्राणात्मवाद के प्रबल समर्थकों में रहे।

यह कहना कठिन है कि चार्वाक सम्प्रदाय के साथ इनका क्या संबंध रहा। पर प्राणों को ही परमतत्व मानने के पीछे कहीं न कहीं चार्वाक दर्शन की प्रेरणा काम कर रही थी जो महाभूतों के संग्रह में से चेतना का जन्म मानते थे। इसी तरह पुरुष यानी चैतन्य को प्रकृति से अलग मानने वाले सांख्य दर्शन के सिद्धान्त में भी अगर कहीं चार्वाकों के विचार का उत्तर देने का प्रयास कारण रहा हो तो इसमें हैरानी कहां? चार्वाक दर्शन अगर वैसा ही था जैसा उसकी तस्वीर इस आलेख में अब तक उभरी है तो यकीनन चार्वाक के अनुयायी दर्शन-संगोष्ठियों में काफी घनघोर बहसों को जन्म देने में सफल होते होंगे और वैसा करने में खासी खुशी भी इन्हें होती होगीl



सूर्यकांत बाली

संकलक:प्रवीण कुलकर्णी






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