Wednesday, 31 March 2010
तराना-ए-हिन्द - इक़बाल
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसिताँ हमारा
ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
पर्बत वो सब से ऊँचा हमसाया आसमाँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिस के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा, वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा
'इक़बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
भ्रमर आणि कवी
सखया भ्रमरा सदैव होसी तू कमलावरी गुंग,
कवितेचा मी दास, पदाशी तिच्याच असतो दंग.
चाखुनी घेसी पुष्पांमधला तू मधुतर मकरंद;
काव्यरसास्वादाचा मजला तसाच भारी छंद.
प्रेमभराने तू पुष्पांवर सदैव गासी गाणे;
आळवितो मी कवितादेवी मंजुल आलापाने.
बागडसी तू स्वैर मजेने नभात गरके घेत;
बागडतो मी सुज्ञ जनांना हर्षभरित करीत.
समशिलाचे आपण दोघे, ये, ये भ्रमरा आता;
उडू बागडू, फिरू मजेने नुरे कशाची चिंता.
ये प्रिय सखया, वनलतीकांच्या झोपाळ्यात बसून;
गाऊ सुंदर गीत आपुले, होऊ त्यात विलीन.
ये, ये कमली प्रेमबंधने बांधुनी घेऊ काया;
आनंदाच्या सुधासमुद्री जाऊ स्नान कराया.
वनराजीतुनी कुंजामधुनी वेनुध्वनी करून;
वात विहरतो; त्याचा जाऊ आपण पंथ धरून.
ये, ये स्वच्छंदाने मारू नभात उंच भरा-या;
गिरक्या घेऊ परमानंदे ओसरल्या ज्या सा-या.
रम्य गायने वेधुनी टाकू चाल दिशांना चारी;
अमृताचा वर्षाव करू ये ईशाच्या बाजारी.
बालकवी
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
आनंदी-आनंद
१
आनंदी-आनंद गडे
इकडे, तिकडे, चोहिंकडे.
वरती-खाली मोद भरे;
वायूसंगे मोद फिरे,
नभात भरला,
दिशात फिरला,
जगात उरला,
मोद विहरतो चोहिंकडे;
आनंदी-आनंद गडे
२
सूर्यकिरण सोनेरी हे
कौमुदी हि हसते आहे;
खुलली संध्या प्रेमाने,
आनंदे गाते गाणे;
मेघ रंगले,
चित्त दंगले,
गान स्फुरले,
इकडे,तिकडे चोहिंकडे
आनंदी-आनंद गडे!
३
नीलनभी नक्षत्र कसे
डोकावुनि हे पाहतसे;
कुणास बघते? मोदाला!
मोद भेटला का त्याला?
तयामध्ये तो
सदैव वसतो,
सुखे विहरतो,
इकडे,तिकडे चोहिंकडे;
आनंदी-आनंद गडे!
४
वाहती निर्झर मंदगती,
डोलती लतिका वृक्षतती,
पक्षि मनोहर कूजित रे,
कोणाला गातात बरे?
कमल विकसले,
भ्रमर गुंगले,
डोलत वदले-
इकडे,तिकडे चोहिंकडे;
आनंदी-आनंद गडे!
५
स्वार्थाच्या बाजारात
किती पामरे रडतात;
त्यांना मोद कसा मिळतो?
सोडूनी स्वार्थ तो जातो-
द्वेष संपला,
मत्सर गेला,
आता उरला
इकडे,तिकडे चोहिंकडे;
आनंदी-आनंद गडे!
बालकवी
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
संसार
अरे, संसार संसार
जसा तावा चुल्ह्यावर
आधी हाताले चटके
तव्हा मियते भाकर!
अरे, संसार संसार
खोटा कधी म्हनू नही
राउळाच्या कयसाले
लोटा कधी म्हनू नही
अरे, संसार संसार
नही रडनं कुढनं
येड्या, गयातला हार
म्हनू नको रे लोढनं
अरे, संसार संसार
खीरा येलाव-हे तोड
एका तोंडा मधी कडू
बाकी सर्वा लागे गोड
अरे, संसार संसार
म्हनू नको रे भीलावा
त्याले गोड भीमफूल
मधी गोडंब्याचा ठेवा
देखा संसार संसार
शेंग वरतून काटे
अरे, वरतून काटे
मधी चिक्ने सागरगोटे!
ऐका, संसार संसार
दोन्ही जीवाचा इचार
देतो दु:खाले होकार
अन सुखाले नकार
देखा, संसार संसार
दोन्ही जीवाचा सुधार
कधी नगद उधार
सुखदु:खाचा बेपार!
अरे, संसार संसार
असा मोठा जादूगार
माझ्या जीवाचा मंतर
त्याच्यावरती मदार
असा संसार संसार
आधी देवाचा ईसार
माझ्या दैवाचा जोजार
मग जीवाचा आधार!
बहिणाबाई चौधरी
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
कशाले काय म्हनू नही
बिना कपाशीनं उले
त्याले बोंड म्हनू नही
हरी नामाईना बोले
त्याले तोंड म्हनू नही
नही वा-यानं हाललं
त्याले पण म्हनू नही
नही ऐके हरीनाम
त्याले कान म्हनू नही
पाटा येहेरीवाचून
त्याले मया म्हनू नही
नही देवाचं दर्सन
त्याले डोया म्हनू नही
निजवते भुक्या पोटी
तिले रात म्हनू नही
आखडला दानासाठी
त्याले हात म्हनू नही
ज्याच्यामधी नही पाणी
त्याले हाय म्हनू नही
धावा ऐकून आडला
त्याले पाय म्हनू नही
येहेरीतून ये रिती
तिले मोट म्हनू नही
केली सोताची भरती
त्याले पोट म्हनू नही
नही वळखला कान्हा
तिले गाय म्हनू नही
जिले नही फुटे पान्हा
तिले माय म्हनू नही
अरे, वाटच्या दोरीले
कधी साप म्हनू नही
इके पोटच्या पोरीले
त्याले बाप म्हनू नही
दुधावर आली बुरी
तिले साय म्हनू नही
जिची माया गेली सरी
तिले माय म्हनू नही
इमानाले इसरला
त्याले नेक म्हनू नही
जल्मदात्याले भोवला
त्याले लेक म्हनू नही
ज्याच्यामधी नही भाव
त्याले भक्ती म्हनू नही
ज्याच्यामधी नही चेव
त्याले शक्ती म्हनू नही
बहिणाबाई चौधरी
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
एक कैफियत
रोखली संगीन छातीला रुते,
गारदी घेऊन आले शृंखला
लाथही कोणी बुटाची हाणली
अन मला माझा सुगावा लागला!
बाजूच्या दारातून डोकावती
ओळखीचे चेहरे घाणेरडे;
हालती पालीपरी काही जिभा :
सारखी माझ्यावरी थुंकी उडे!
थंड नेत्रांनी तटस्थासारख्या
येथल्या भिंती मला न्याहाळती;
मात्र मी काढून छाती बोलतो
शब्द जे ओठांवरी ओठंगती!
कातडी सांभाळून आपापली
दूर झाल्या सोबत्यांच्या इभ्रती:
सोयरे सारेच सोयीचे घरी
भाकिते माझी चुलीला सांगती.
काल ह्या गल्लीत आयुष्यासवे
गीत माझे झुंजले अन हारले!
नागवी अद्यापही माझी घृणा;
मी कुठे हत्यार खाली टाकले?
सुरेश भट
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
हासताना प्राण गेला
हासताना प्राण गेला का तुला आले रडे?
हे पहा लोक सारे कोरडेच्या कोरडे!
का अशी मागून ही
ढाळशी तू आसवे?
संपलो केंव्हाच मी
त्या तुझ्या स्वप्नासवे.
तारकांनाही न आता खूण माझी सापडे!
तू असा छेडू नको
अंतरीचा जोगिया;
हो चिता माझी पुन्हा
लागली जागावया.
ही पहा राख माझी वारियासंगे उडे!
एकदा नेत्री तुझ्या
चांदणे मी वेचले;
एकदा ओठी तुझ्या
गीत माझे गुंफिले.
आज अस्थाईच माझी अंत-यापाशी अडे!
सुरेश भट
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
हरिशंकर परसाई का व्यंग - वह जो आदमी है न
निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइया होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।
स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।
मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?
मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है।
निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था।
मैंने कहा- पीने दो।
वे चकित हुए। बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?
मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है।
उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे।
तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे- ये तो प्राईवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब।
मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है। मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द की दाल खाता है।
तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया। यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं।(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी।) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे।
चेतना का विस्तार। हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं। एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं- मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है।
एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे। कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले। नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने कहने लगे- नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा- इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया। बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई। बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है- सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ- थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।
फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था।
मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था।
मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं।
मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है।
उसका चेहरा अब खिल गया। बोला- है न?
मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है।
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊंचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है।
कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है।
किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है।
वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे।
जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है- ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता।
एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया।
बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा- ज्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच में रख लो।
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
Monday, 29 March 2010
बोलू नकोस काही
बोलू नकोस काही आले कुठून सारे
शब्दात का धरावे श्वासातले इशारे?
या लाज-या फुलाचा दुरुनी सुवास घ्यावा
आकार रंग त्याचा हृदयात साठवावा
कोमेजते घडीने प्राजक्तफुल न्यारे!
शब्दांहुनी खरी ही डोळ्यांमधील भाषा
येतील काय हाती पाण्यावरील रेषा?
या वाहत्या जळाला देऊ नको किनारे!
रंगत नाहणारे आकार हे ढगांचे
आभास मात्र होती स्वप्नातल्या जगाचे
येते तसेच जाते वेडे वसंतवारे!
गीत:शांता शेळके
संगीत:मधुकर गोळवलकर
गायिका:प्रमिला दातार
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
आयुष्य
ते दुखरं आहे...हळवं आहे...
चार पावलांतच खूप ठेचकाळलंय
पण चाललंय....
गरीब, शहाण्या म्हाता-यासारखं चाललंय....
त्याच्याकडे बलदंड स्नायू नाहीत,
धारदार सुळे नाहीत....
जमिनीत मान घालून चरणा-या शेळीसारखं
जन्माला आलंय आणि मृत्यूकडे चाललंय....
आणि तरीही त्याला नावं ठेवायचा हक्क
माझ्यासकट कुणालाच नाही;
कारण माझं म्हणावं असं तेवढंच तर आहे!
मलाच येतो त्याचा खूपदा राग
आणि मलाच येते त्याची खूपदा दया....
डोंगरात हरवलेल्या वासरासारखं
चुकतमाकत आई शोधतंय....
त्याला ना कधी मी बोलणार,
ना हिडीसफिडीस करणार....
एकसंध दिसलंच कधी तर कुशीत घेईन
तोंडावरून हात फिरवेन
जमेल तेवढी माया देत राहीन....
इनमिन साठ वर्षांसाठी तर आलं असेल बिचारं....
पडून राहील कुठल्यातरी कोप-यात
कुणाच्या अध्यात ना मध्यात....
एवढ्यांची पोटं भरतात रोजच्या रोज
भाकरीचे चार तुकडे काही आकाशाला जड नाहीत!
अखेरचं 'निदान' तर केंव्हाच झालंय;
मलाही आहे ठावूक, त्यालाही आहे माहित!!
संदीप खरे
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
हँगओव्हर...
सकाळ झाली...
कोवळी कोवळी उन्हे पसरली आहेत परत...
घर आवरतो आहे परत स्वच्छ
पण खरंच 'आवरता' येणार आहे का हे घर?...
वस्तू पोचल्या आहेत जागच्या जागी
कॅसेटसच्या जागी पोचल्या आहेत कॅसेटस
आणि 'मी त्यातला नाहीच' असा साळसूद टेप...
जमिनीवर जाणवत आहेत अजून
घरभर पसरलेल्या उदास गझला...
भिंतीवर चिकटलेल्या, झुंबर झालेल्या...
दारुनी ओलेत्या मनाला
जरा जास्तच बसतो गझलचा शॉक....!!
गच्चीतल्या धुळीत उतरले आहेत
माझ्याच पावलांचे वेडेवाकडे ठसे...
मी इतका अस्ताव्यस्त चाललो?
पण विश्वास ठेवणे भाग आहे!
आता हे नीट झाडून ठेवण्यापूर्वी
फोटो काढून ठेवावा का ह्यांचा?
'येती' च्या पावलांचा ठेवतात तसा?
संदीप खरे
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
अल्कोहोल
रात्रीच्या उदरात उदासीन मळमळणारे अल्कोहोल
भल्या पहाटे छातीमध्ये जळजळणारे अल्कोहोल!
दुनियेसाठी टाकाऊ अन नकोनकोसे गटार हे
माझ्यासाठी निर्झर होऊन खळखळणारे अल्कोहोल!
हवाहवासा गंध जिण्याचा हवेत हलके विरताना
नकोनकोसा दर्प होऊनी दरवळणारे अल्कोहोल!
हाक कुणी इतुकी न देते! साथ कुणाची ना मिळते!
रक्तासोबत इमान होऊन विरघळणारे अल्कोहोल!
घाव बैसता तडफडतो जीव! ना उरतो ना जातोही!
शेपूटतुटकी पाल होऊनी वळवळणारे अल्कोहोल!
जगास वाटे अनैतिक जे! निषेध करते जग ज्याचा!
अशा अबोली दु:खावरही हळहळणारे अल्कोहोल!
सन्मानांचे दिवस झेलतो, जरी कौतुके जग अवघे!
तिच्या कटाक्षावाचून रात्री तळमळणारे अल्कोहोल!
फणा काढल्या मृत्युवरती मोहून गेला मंडूक मी!
जातिवंतसे जहर होऊनी सळसळणारे अल्कोहोल!
रसायनांची किमया नामी! यमदूतांचे कष्ट कमी!
हे मृत्यूचे भाग्य होऊनी फळफळणारे अल्कोहोल!
मी त्या पितो! ते मज पिते! दोघांमध्ये खेच सुरु!
पुरुनी उरूनी थडग्यापाशी भळभळणारे अल्कोहोल!
संदीप खरे
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
अलीकडे तिच्या वाटेत
अलीकडे तिच्या वाटेत देशी विदेशी राजहंस असतात
आम्ही आधीचेच झालेलो धुरकट जिथं रंगबेरंगी
फुग्यांसाठी जीव तोडून रडायचं
अभयारण्य
थोडी पत गाठीला बांधून ऐकायचं तिच्या संबंधातलं
रेडीओबूत जे सकृतदर्शनी शुक्लांगी
जिथं रुततं निवडुंगासह दोन फण्यांतील विषुववृत्त
नि उतरतात कालाबूतीनं गळे पद्मपाणी
जिथं घोड्याच्या घोडवळीला तडफडतात
पाणघोडे पाण्याशिवाय
नि विकारतात पददलित झोळ्या भोकांडून
जिथं ऑगस्ट-सप्टेंबरातला गुलमोहर
त्याच्याकडे पाठ फिरवून तिचं बांधेसूद शरीर
राजहंसाच्या शय्येसोबत
शिशमहल
ज्याचे काटे
आमच्या डोळ्यात माखलेले
नामदेव ढसाळ
गोलपिठा
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
Sunday, 28 March 2010
तळहात विघडून जवळपास
तळहात विघडून जवळपास
तिनं दोन विटाळांतलं अंतर ध्वनित केलंच नाही
वृषणातलं दु:ख घेऊन तिच्याकडे गेलो तर ती
रिकाम्या ग्लासासारखी कोरडीठन्न
लवेचा रंग जात
काखेतील केसांचा प्रकार
हृद्यपीडा ओटीपोट
जांघेतील ग्रंथी
स्वप्नांचा इतिहास
शरीराची साधारण स्थिती
अवांतर विशेष
त्यांचाच चक्रव्युह मांडून ती विसरली समुद्र
उत्थापनाचे वेळी होणारा त्रास काळ आदि दु:ख
ऋतुधर्म सुरु झाल्यावेळचे वय
लैंगिकज्ञान झाल्यावेळचे वय
पहिला संभोग रक्तस्त्राव
संभोगोत्तर मन:स्थिती
आवडनावड गर्भधारणा
क्रिया प्रतिक्रिया परिणाम
वय उंची बांधा
यांचेऐवजी हिशेब ठेवला तिनं हाडाच्या चामड्याचा
चिखलीचा
नि तळहात विघडून जवळपास
मी मावळलो कामेच्छा
नामदेव ढसाळ
गोलपिठा
संकलन:प्रवीण कुलकर्णी
Saturday, 27 March 2010
८३ वे अखिल भारतीय साहित्य संमेलन पुणे
ना.धों महानोर यांचे उद्घाटनपर भाषण
सतीश देसाई यांचे स्वागतपर भाषण
संमेलनाध्यक्ष द.भी.कुलकर्णी यांचे अध्यक्षीय भाषण
पूर्ण पहा!(कालावधी दोन तास ३३ मिनिटे)
सतीश देसाई यांचे स्वागतपर भाषण
संमेलनाध्यक्ष द.भी.कुलकर्णी यांचे अध्यक्षीय भाषण
पूर्ण पहा!(कालावधी दोन तास ३३ मिनिटे)
Friday, 26 March 2010
द. भि. कुलकर्णी यांचे अध्यक्षीय भाषण:
सुसंवाद आणि समन्वय : मराठी साहित्यसंस्कृतीची जन्मखूण
८३वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, पुणे
डॉ० द० भि० कुलकर्णी यांचे अध्यक्षीय भाषण
शुक्रवार, दिनांक २६ मार्च २०१०
मित्रहो,
पुणं मला नवीन नाही. १९६०पासून १९६४पर्यंत मी कोल्हापुरात होतो.
नामदार गोपाल कृष्ण गोखले कॉलेजमध्ये. तेव्हा आमचं महाविद्यालय पुणे
विद्यापीठाला संलग्न होतं. शैक्षणिक कामकाजासाठी पुण्याला नेहमी यावं लागे.
अहो, आमच्या कोल्हापुरात तेव्हा पीएच.डी.चा कोणी मार्गदर्शकच नव्हता. डॉ०
ल० म० भिंगारे यांच्यात ती पात्रता होती; पण त्यांना मान्यता मिळत नव्हती. त्यांचा
स्वभाव आणि विद्याक्षेत्रातील राजकारण- आणखी काय! मग चला पुण्याला; भेटा
तुळपुळे-जोग-सहस्रबुद्धे यांना. काय सांगू तुम्हाला, कुठे विषय जुळायचा तर
मार्गदर्शकाकडे जागा नसायची; कुठे जागा असायची तर विषय नापसंत. माझी
पत्रिकाच कुठे जुळत नव्हती! जोग-तुळपुळे-सहस्रबुद्धे यांच्याशी संवाद साधण्याचा
आनंद मात्र मनमुराद मिळत होता. शिक्षण-नोकरी-विवाह या सगळ्या संदर्भात
सगळ्या सोयी तेव्हा पुण्यातच. मग सगळीकडून आप्त-मित्र-परिचित-गरजू
स्वाभाविकच पुणेकराकडे ठिय्या ठोकणार. पुणेकर वैतागणार नाहीत तर काय!
त्याला स्वत:चं काही आयुष्य आहे की नाही? आता पुण्याबाहेरची परिस्थिती
बदलली आहे; पुणेकरही बदलले आहेत; हा माझा अनुभव आहे.
नाते पुण्यनगरीशी
महाराष्ट्र साहित्य परिषदेनं मराठी वाङ्मयाच्या इतिहासाचा प्रकल्प हाती
घेतला. त्याची सूत्रं मा० रा० श्री० जोग यांच्याकडे आली. सहसंपादक म्हणून त्यांनी
प्रा० भ० श्री० पंडित, डॉ० ल० म० भिंगारे, डॉ० कृ० भि० कुलकर्णी, द० भि०
कुलकर्णी अशा अनेकांची निवड केली. प्रकल्पाचे सल्लागार होते प्रा० दि० के०
बेडेकर आणि प्रा० गं० बा० सरदार. संपादक मंडळाच्या सतत बैठका व्हायच्या.
बैठका म्हणजे फक्त खाऊ-पिऊ नाही; तर प्रकरणांचे वाचन, चर्चा, सूचना. जोग सर
फार जुतेने पण तरीही शिस्तबद्ध पद्धतीने काम करवून घेत. म्हणून तर अव्वल
इंग्रजी कालखंडावरचा हा चवथा खंड प्रथम प्रकाशित झाला. जोग हास्यविनोदही
करीत. हॉटेलमध्ये चहापाण्यालाच काय, जेवायलाही नेत. माझ्या दृष्टीने जोग सर
माझे एक विद्यापीठच होते. तेव्हा मी नेहमी जंगली महाराज मार्गावरच्या 'भारत
लॉज'मध्ये उतरत असे. तिथेही जोग येत. हॉटेलमधल्या मंडळींना वाटे, प्रा० जोग
माझे सासरेच! इतके ते प्रोदराने वागत. त्यांच्यात नावालाही 'पुणेरीपण' नव्हतं.
विठ्ठलराव घाट्यांनी म्हटलेच आहे, पुणेरीपण नागपूरच्या रामदासपेठेतही असू
शकते! अगदी खरं.
खरं म्हणजे माझे सासरे पुण्यातच होते : सिव्हिल सर्जन डॉ. दादा गोगटे.
शिवरंजनीचे वडील ऍड. मोरूभाऊ गाडगीळ, तिच्या बालपणीच, अपघातात
गेलेले. शिवरंजनीला माया लागली ती मावशीची. 'बाप मरो, मावशी जगो' अशी
तिची स्थिती. या मावशीचे यजमान म्हणजे डॉ. गोगटे. तेव्हाचा माझा स्वभाव काय
सांगावा! शिवरंजनी सोबत असेल तरच मी गोगट्यांकडे जात असे. शिवरंजनीनं
'मनातला झोका' नावाचं लहानसं पुस्तक लिहिलं आहे, त्यात या मावशीचं प्रे
वर्णिलं आहे. कमलमावशीच काय, शिवरंजनीचे डझनभर नातेवाईक पुण्यात.
आत्या, आतेबहिणी, आतेभाऊ, मावश्या, मावसबहिणी, मावसभाऊ. अनेक.
साक्षात धनंजयराव गाडगीळ तिचे चुलते. मोरूभाऊ आणि धनंजयराव एकत्र कुटुंबात
वाढलेले, त्यामुळे नातं घट्ट. ते अगदी सुलभाताई ब्रह्मे, माधवराव गाडगीळ
यांच्यापर्यंत तितकेच घट्ट. पुणे नगरीचं एक सुसंस्कृत, शालीन रूप मला गोगटे-
गाडगीळ-सोवनी या परिवारानं सतत दाखवलं आहे. पुण्यात त्या अर्थाने पुणेरीपण
मला आजतागायत आढळलेलं नाही. अहो, इथले मतदारसुद्धा माझ्याशी सौजन्यानं
वागले म्हणजे बोला! त्यांना मी म्हटलंच, तुम्ही सगुणोपासक! मतपेटीवर तुम्ही
मतपत्रिकेची फुलं वाहिलीत, मला मत दिलंत. धन्यवाद! पण तुच्या या
सगुणोपासनोगे सुसंस्कृत पुणेरी मनाची निर्गुणोपासना होती. गुणिजन सर्वत्र
आढळतात, गुणग्राहक मात्र तसे दुर्मिळच. पुण्यनगरीचं वैशिष्ट्य हे, की इथे
गुणिजनांप्रमाणेच गुणग्राहक जनांचेही अपार पीक आहे. परंपरासंपन्न, संस्कारसंपन्न
समाजातच असं पीक बहरत असतं. समाजाच्या या सामूहिक अबोध मनावर माझा
फार विेशास आहे. भारतातील केवळ सात राज्यांतील मतदारांनीच मला अध्यक्षपद
प्रदान केलेलं नाही, तर सात राज्यांतील सामूहिक अबोध मनाने ते मला बहाल केलेलं
आहे. त्यांचे आभार तरी कोणत्या शब्दांत मानू?
१९९७ साली नागपूर येथे लतादीदींनी पंचवीस हजार प्रेक्षकांसमोर पन्नास
हजारांचा पुरस्कार दिला; आणि तोही कोणासोबत? तर दिलीपकुमार, गंगूबाई
हनगळ आणि किरण बेदी यांच्याबरोबर. तेव्हा आनंद झाला तो एका कलावंताने एका
समीक्षकाचा गौरव केला म्हणून; आणि आज? संपूर्ण मराठी समाज सत्कार करतोय
म्हणून.
१८७८ साली न्यायमूर्ती महादेव गोविंद रानडे यांनी साहित्य संमेलनाचे
बीजारोपण केले. या पुण्यनगरीत. तेव्हा या संमेलनाचे नाव होते 'ग्रंथकार संमेलन'.
गंत ही, की तेव्हा न्यायमूर्तींच्या नावावर एकही ग्रंथ नव्हता! पुढे या ग्रंथकार
संमेलनाला 'साहित्यिक संमेलना'चे रूप आले. १९५६पासून महाराष्ट्राच्या
अस्मितेला वेगळीच धार आली आणि सगळा मराठी समाजच हे संमेलन आपले मानू
लागला. आता हे साहित्य संमेलन निव्वळ ग्रंथकार संमेलन किंवा केवळ साहित्यिक
संमेलन राहिले नाही. ते झाले आहे मराठी समाजाचे साहित्य संमेलन- नव्हे,
महाराष्ट्राचा वाङ्मयीन सण, महाराष्ट्राचा साहित्यिक कुळधर्म, महाराष्ट्राची
सांस्कृतिक अस्मिता. संमेलनास याने यावे की नाही हा प्रश्नच नाही, त्याने साह्य
करावे की नाही हा प्रश्नच नाही. हे संमेलन सर्व मराठी माणसांचे आहे- मग तो
नोकरदार असो, कलाकार असो, आमदार असो वा नामदार असो... काय? अखिल
भारतीय मराठी साहित्य संमेलन हा महाराष्ट्राचा मानबिंदू आहे. भारतातील इतर
कोणत्याही प्रांतात, कोणत्याही भाषेत असे भव्य साहित्य संमेलन भरत नाही. अशा
संमेलनाला चेष्टेनेसुद्धा उरूस म्हणणे अनुचित ठरेल. नवसे, हौसे आणि गवसे या
शब्दांचा अर्थ तरी आपल्याला कळतो का? रवींद्र विनायक जोशी यांनी, तात्या
माडगूळकरांचा हवाला देत, आपल्या 'माणदेशी माणूस' या लेखात याचा खुलासा
केलाच आहे : ग्रामीण समाजाला प्रिय असलेल्या जत्रेशी हे शब्द संबंधित आहेत.
नवसे म्हणजे नवस फेडायला आलेले; नवशिके नव्हे. आपण सारे वाङ्मयीन नवस
फेडायलाच तर इथे आलो आहोत. साहित्यिक निर्मितीचा नवस फेडायला. रसिक
आस्वादाचा नवस फेडायला. संपादक घडवण्याचा नवस फेडायला. संशोधक
शोधनाचा नवस फेडायला. प्रकाशक काळोखातल्या कलाकृती उजेडात आणण्याचा
नवस फेडायला. आणि ग्रंथपाल? ग्रंथधन जतन करण्याचा, जनतेपर्यंत पोचवण्याचा
नवस फेडायला. आणि पत्रकार? साहित्याचा शब्द समाजाच्या तळागाळापर्यंत
पोचवण्याचा.
-आणि हौसे? साहित्याच्या क्षेत्रात व्यावसायिक लेखक, व्यावसायिक
पत्रकार, पगारदार प्राध्यापक असे अनेक साहित्यिक असतात; त्यांना आपण हौसे
कसे म्हणणार? साहित्य हे त्यांच्या उपजीविकेचे साधन असते; एका अर्थाने ते
प्रशिक्षित वाचक व प्रशिक्षित लेखकही असतात. इतर क्षेत्रांध्ये प्रशिक्षणाला फार
महत्त्व असते. वाङ्मयाच्या क्षेत्रातही प्रशिक्षित अभिरुचीला आणि प्रशिक्षित
लेखनविद्येला महत्त्च आहेच; पण, वाचनक्षेत्रात वाचक म्हणून आर्ष असण्यात
वेगळीच गोडी असते. असा वाचक कर्तव्य म्हणून, काम म्हणून, प्रदर्शन म्हणून
वाचत नसतो; तो स्वेच्छेने, स्वयंप्रेरणेने, स्वसुखार्थ वाचत असतो. मी म्हणतो,
प्रशिक्षित वाचकानेही अधूनमधून असे आर्ष वाचक व्हावे; त्याचा आनंद फार मोठा
आहे. प्रे करताना काय वात्स्यायनाकडे पाहायचे असते? विचारा चारुदत्तवस
ंतसेनेला. जन्मभर प्राध्यापकी केली, आवडीआवडीने वाङ्मय शिकवले;
वाङ्मयच काय, साहित्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र यांचेही धडे दिले; पण शास्त्र, सिद्धांत,
विद्वत्ता यांच्या आधी महत्त्व आहे मुक्त आस्वादाला. माउली असे नाही म्हणत की
माझा ग्रंथ समजून घ्या; ती म्हणते, माझ्या ग्रंथाचा आस्वाद घ्या. माउली असे नाही
म्हणत, की माझ्या ग्रंथाच्या आस्वादासाठी तुच्यापाशी पांडित्य असलं पाहिजे
म्हणून. मग ज्ञानराज काय म्हणतात? हळुवारपण, अतिहळुवारपण. साहित्याचा
'आस्वाद' घ्यायचा हे तर झालेच, पण तो आस्वादही आंतरिक हळुवारपणे घ्यायचा
असतो. कसा? ज्ञानेशरांची ती ओवी तर सगळ्यांनाच मुखोद्गत आहे :
जैसें शारदेचिये चंद्रकळें।
माजी अमृतकण कोंवळे।
ते वेंचिती मनें मौआळें ।
चकोरतलगें।।
ही ओवी तर आपल्याला कळते; पण तिचा आस्वाद हळुवारपणे घेतला, की
घड्याळात किती वाजले आहेत हे तर कळतेच; शिवाय आतली यंत्रकिमयाही दिसू
लागते! म्हणजे काय?
आस्वाद आणि निर्मिती
शरदतू. कुठलाही तू नव्हे. पावसाळ्यात मेघांनी ठेंगणं झालेलं आभाळ
आता उंच गेलं आहे. निरभ्र. अशा तूतील पौर्णिा नव्हे, जरा अलीकडची तिथी.
आता 'चंद्रकळा' या शब्दातली मंत्रकिमया दिसायला लागली ना? दर्शनी अर्थातून
माउली आत आत, वर वर अशी नवनवी आशयलेणी खोदीत जातात की आपण
स्तंभितच व्हावे. फक्क चादणं नाही, मंद चांदणं. संपूर्ण चांदणं नाही, फक्त त्यातील
अमृत. संपूर्ण अमृतही नाही, त्यातील निवडक कण- कोवळे कोवळे कण. तेही
सावडायचे नाही, वेचायचे. चिमटीने? नाही. चोचीने. चोचीने? नाही. मनाने. अहो,
जगात अशी एकच कला आहे की जी इंद्रियाने आस्वादायची नसते, मनाने
आस्वादायची असते. संगीत, नृत्य, शिल्प, चित्र या इंद्रियगोचर कला आहेत.
साहित्यकला ही अशी एकुलती एक कला आहे की जी मानसगोचर कला आहे. अरे
बाबा, कविता डोळ्यांनी वाचता येते, कानांनी ऐकता येते, दृष्टिहीनाला स्पर्शलिपीनेही
समजते... काय? कुठल्याही मार्गाने का होईना, ती मनापर्यंत पोचली पाहिजे. असे
आपण संगीताबद्दल म्हणू शकतो, की मी कानाने संगीत न ऐकता एकदम मनाने
त्याचा आस्वाद घेईन? अशक्य. साहित्यक्षेत्रात मनाच्या हळुवारपणाला का महत्त्व
आहे ते आता कळेल. साहित्याचा रसिक हा केवळ आस्वादक नसतो, तर कवीची
कविता आपल्या मनात मुरवून तो तिची नवनिर्मिती करीत असतो. साहित्याचा रसिक
निर्माताच असतो. आस्वादासाठी हवे असते आर्ष, म्हणजे अनघड मन.
नवनिर्मितीसाठी हवे असते सुघड मन. साहित्यकला रसिकाकडून जेवढी अपेक्षा
करते तेवढी अपेक्षा अन्य कुठलीच कला रसिकाकडून करीत नसते. उडू न
शकणाऱ्या, तळाशीच गमन करू शकणाऱ्या चकोरतलगाची कोवळीक
साहित्यरसिकाकडून अपेक्षित असते.
तेयापरीं श्रोतां ।
अनुभवावी हे कथा ।
अति हळुवारपण चित्ता ।
आणुनियां।।
-असे माउली काय उगाच म्हणते? असे एकदाच नाही, पुन:पुन्हा. ज्ञानराज आपणांस
जागे करीत असतात. ते 'अवधान द्या' असे पुन:पुन्हा म्हणतात तेही काय उगाच?
'हौसे' या शब्दाचा अर्थ 'ज्याच्यापाशी वाङ्मयीन प्रशिक्षण नसेल पण हुरूप आणि
हळुवारपण असेल असा वाचक' असा घेणेच उचित. आणि गवसे? जत्रेतला त्याचा
अर्थ काय असेल तो असो. इथे आपण सारेच आपापल्यापरीने गवसे आहोतक
ाहीतरी शोधायला आलो आहोत. हे पाहा, साहित्याची निर्मिती हा एकांताचा
उत्सव असतो; साहित्याचा आस्वाद हाही एकांताचा उत्सवच असतो. मग ही
मांदियाळी कशाला? असे म्हणतात, की एकाने केलेल्या प्रार्थनेपेक्षा समूहाने
केलेल्या प्रार्थनेची शक्ती अधिक असते. इथे काही आपण लिहायला आणि
वाचायला आलेलो नाही; इथे आपण आलो आहोत ते एकमेकांना भेटायला,
एकमेकांशी बोलायला, सर्वांशी हृदयसंवाद साधायला. लेखक, संपादक, प्रकाशक,
समीक्षक, ग्रंथपाल, पत्रकार आणि वाचक अशी ही मांदियाळी आहे. या विविध
दुव्यांतून एक प्रक्रिया पूर्ण होत असते. वाचलं आणि संपलं, लिहिलं आणि संपलं,
असं कधीच होत नसतं. भाषा आणि साहित्य या सामाजिक संस्था आहेत असे
आपण म्हणतो ते खरेच आहे; पण भाषा आणि साहित्य ही एक सामाजिक
प्रक्रियासुद्धा आहे, हे लक्षात ठेवले पाहिजे. कधी कधी आपल्याला प्रश्न पडतो, की
आपण लिहितो ते ठीक, पण ते लिहिलेले प्रकाशित का करतो? एका अबोध
अनुभवाचे बीज आपल्या अबोध मनात पडते. आत्मभान आणि वस्तुभान यांचा तो
संयोग असतो. तेव्हा ना त्याला रूप असते ना नाम; पण प्रतिभेच्या गर्भाशयात तो
अनुभव वाढत-घडत असतो. कुशीतील गर्भाचं रंगरूप मातेला तरी कुठं कळतं? पण
एक दिवस येतो आणि तो अनुभव हळूहळू किंवा झटक्यात कागदावर जन्म घेतो.
कवी अनिलांनी अचूक शब्दांत म्हटलंय :
अनवांछित गर्भाचे दिवस असे भरलेले
मन पहिलटकरणीसम प्रसवाला भ्यालेले
-तेव्हा जन्मदात्रीला अवर्णनीय आनंद होतो. लेखक कागदावरच्या आपल्या
अपत्याकडे पाहतो तेव्हा त्याला काळीनिळी अक्षरे मेघश्याम कृष्णासारखी वाटतात.
मातेला वाटतेच, आपली कन्या म्हणजे अगदी क्लिओपात्रा किंवा मोनालिसाच! पण
हे कुठवर? जोवर हस्तलिखित लेखकाच्या खणात असते तोवर. कन्यका वाढते,
मायबाई तिला शाळेत घालते. गणवेश. भोवती सहेल्यांचा घोळका. मग आईला
आपल्या मुलीची उंची, तिचं रंगरूप, तिची बुद्धी यांचा 'याचि देही याचि डोळां'
साक्षात्कार होतो; वर्गात किती मुली आहेत याचा बोध तिच्या गुणपत्रिकेवरून होतो!
आपले लेखन नियतकालिकांत प्रसिद्ध होणे म्हणजे लेकीला विद्यालयात प्रविष्ट
करणे. इथून पुढे लेखक स्वत:च्या निर्मितीकडे थोडे तटस्थपणे पाहायला शिकतो.
त्याची माया थोडी पातळ होते हे बरेच की! इथेही ही प्रक्रिया थांबत नाही- थांबू नये.
कधी तरी पुस्तक निघावे. पैसे देऊन किंवा घेऊन. कसेही; पण पुस्तक निघावेच.
पुस्तक प्रकाशित होणे म्हणजे कन्येला सासरी पाठवणे. नियतकालिकांतील
लेखनापेक्षा ग्रंथाचे आयुष्य सुदीर्घ असते. कधी तो ग्रंथ हॉटकेक्ससारखा विकला
जाईल तर कधी ग्रंथालयातील रॅकवर तिष्ठत राहील; पण राहील. असेल त्याच्यात
जीव तर येईलच समानधर्मा कधी तरी जन्मास. काल अनंत आहे आणि पृथ्वी विपुला
आहे यावर प्रत्येक सहित्यिकाने विेशास ठेवावा. उतावीळ होऊ नये; सासरी गेलेल्या
लेकीच्या संसारात लुडबूड करू नये. असे समजावे, की आता तिचे नाव-गाव
बदलले आहे ना, मग श्रेय- अपश्रेयही तिचेच, आपले नव्हेच. ग्रंथकाराने आपल्या
ग्रंथाबद्दल असा विवेक धरला की त्याला आपल्या निर्मितीच्या सर्व खाणाखुणा, सर्व
उणिवा दिसू लागतात. हा अनुभव लेखकाला नवे स्वातंत्र्य देतो, निर्मितीचे नवे बळ
देतो. हा माझा अनुभव आहे. मित्रहो, माझ्या पुस्तकांची नावे सारखीसारखी
आहेत : पार्थिवतेचे उदयास्त- अपार्थिवाचे चांदणे, पहिली परंपरा- दुसरी
परंपरा, पहिल्यांदा रणांगण- तिसऱ्यांदा रणांगण. नावे सारखी आहेत पण प्रत्येक
पुस्तक इतर सर्व पुस्तकांपेक्षा वेगळे आहे. अगदी अनन्य. ही अनन्यता म्हणजेच तर
साहित्यिकाचा विकास.
स्फुरण-लेखन-लेखप्रकाशन-ग्रंथप्रकाशन ही एक सलग प्रक्रिया आहे असे मी
का म्हणतो ते आता लक्षात येईल. ती अधेधे तोडता कामा नये. त्यामुळे लेखकाचा
विकास खंडित होतो. प्रकाशनामुळे काय मोठी प्रसिद्धी मिळते, काय पैसा मिळतो?
नन्ना. कधी कधी तर उलटही घडते. तरीही ही प्रक्रिया चालू ठेवायची असते. असतेच.
असे समानधर्मी एकत्र येतात तेव्हा ते आपोआप आपल्या पोटातली सुखदु:खे प्रकट
करतात. त्यातून प्रत्येकास नवे आत्मभान, नवे वस्तुभान प्राप्त होते. एकाच्या
प्रार्थनेपेक्षा अनेकांची प्रार्थना अशी फलद्रूप होते. असे म्हणतात, की एकत्र प्रवास
केल्याने, एकत्र जेवल्याने आणि रहस्याची देवाण-घेवाण केल्याने मैत्री दृढावते. या
क्षणी आपण साहित्यमैत्रीचे हे तीनही पैलू अनुभवीत आहोत- लक्षणेने. आज आपण
विज्ञान आणि तंत्रज्ञान यांची घोडदौड अनुभवीत आहोत; मात्र आपण यंत्रदास न होता
यंत्रस्वामी व्हायचे आहे. मराठी साहित्य विेशसंचारी होण्यासाठी इंटरनेट आणि
ब्लॉग या साधनांचा वापर आवश्यक आहे. नव्या पिढीने त्याचा मोठ्या प्रमाणात
अंगीकार केला आहे, ही अभिमानाची बाब आहे.
बोली, भाषा आणि परिभाषा
अभिधा, लक्षणा आणि व्यंजना. या शब्दांना दचकूया या नको. अरे, संगीत,
क्रिकेट, बुद्धिबळ यांतली अपरिचित-अवघड परिभाषा तुम्हाला चालते, मग
साहित्यशास्त्रानेच तुचे काय घोडे मारले आहे?
बोली, भाषा आणि परिभाषा यांतील फरक नीट लक्षात ठेवला पाहिजे : बोली
जनसामान्यांची असते. ती प्रवाही, नादमधुर आणि भावोत्कट असते. तिचे प्रभावक्षेत्र
मात्र सीमित. भाषा ग्रंथनिविष्ट, व्याकरणनिष्ठ, शिष्टसंत असते. तिचे प्रभावक्षेत्र
व्यापक असते. तिच्यात माधुरी आणि भावनिकता कमी पण वैचारिकता अधिक
असते. बोलीचे उच्चारण वाक्यसापेक्ष व म्हणून प्रवाही तर भाषेचे उच्चारण
शब्दसापेक्ष व म्हणून विविक्त असते. परिभाषा कठीण असते असे आपण म्हणतो ते
काही खरे नाही. विषय सोपा करण्यासाठीच तर परिभाषा असते. 'व्यंग्यार्थ' ही
आपल्याला अवघड पारिभाषिक संज्ञा वाटते, ती दोन मार्गांनी सुलभ होत असते :
'व्यंग्यार्थ म्हणजे अर्थाचा अर्थ'. या वाक्याचा बोध होण्यासाठी अर्थाचे प्रकार ज्ञात
असावे लागतात; जसे, वाच्यार्थ, तात्पर्यार्थ, लक्ष्यार्थ. कवितेध्ये हे तीन अर्थ तर
असतातच- नव्हे, असावेच लागतात. हे सगळे अर्थ शब्दातून, शब्दसमूहातून
प्रकटतात. या साऱ्या अर्थातून-शब्दातून नव्हे- जो अर्थ प्रकटतो त्याला म्हणतात
व्यंग्यार्थ. कवितेतील शब्दांचा अर्थ कळणे म्हणजे कविता कळणे नव्हे; फक्त भाषा
कळणे, अर्थाचा अर्थ कळणे म्हणजे कविता कळणे. मुळात शब्दार्थच कळला नाही,
भाषास्तरावरच कविता कळली नाही तर सगळेच मुसळ केरात! तिथे दोष कवीचा
असेल किंवा आपला. कुठलीच कविता दुर्बोध नसते; एक तर ती निरर्थक-असंबद्ध
असते किंवा आपण अप्रबुद्ध असतो. कुठलीच कविता दुर्बोध नसते.
-सांगायचा मुद्दा हा, की शास्त्रज्ञानाने किंवा प्रतीतीने परिभाषेचे ग्रहण करायचे
असते; ती सुबोधही नसते आणि दुर्बोधही नसते. ज्ञानव्यूहाने किंवा प्रतीतिव्यूहाने
तिचे ग्रहण करणे एवढेच आपल्या हातात असते.
क्रिकेटची परिभाषा आपल्याला चालते. स्क्वेअर ड्राइव्ह, गुगली, फॉरवर्ड
शॉर्टलेग अशी परिभाषेची सूक्ष्मताही आपण स्वीकारतो; मग साहित्यशास्त्रातील
असंलक्ष्यक्रमध्वनी, प्रतीतिउपायवैकल्य, लक्षणलक्षणा या परिभाषेला इतकं काय
घाबरायचं! यालाही अर्थात कारण आहेच : अहो, आपल्या आयुष्यात क्रिकेट जसं
मुरलेलं आहे तसं साहित्य मुरलेलं नाही. साहित्य मुरल्याशिवाय काय
साहित्यशास्त्राची परिभाषा अवगत होईल? वंगसमाज आणि दाक्षिणात्य समाज
यांच्या दैनंदिन आयुष्यातच साहित्य-संगीत-नृत्य इत्यादी कला भिनलेल्या आहेत. हे
समाजच कलाभिरुचिसंपन्न आहेत. आपला महाराष्ट्र शौर्यासाठी आणि बुद्धीसाठी
विख्यात आहे; कलेसाठी आणि भावनेसाठी तेवढा प्रसिद्ध नाही. म्हणून तर
महाराष्ट्रात विनोबा-आमटे-नारळीकर निर्माण होतात पण रवींद्रनाथ निर्माण होत
नाहीत. मराठी साहित्यावर आक्षेप घेताना ही वस्तुस्थिती नेहमी लक्षात ठेवली
पाहिजे. नाटक हे महाराष्ट्राचे दुसरे वेड आहे असे आपण म्हणतो. असेलही; पण
भारतीय स्तरावर मराठी साहित्याची ख्याती आहे ती निबंध-साहित्यशास्त्र-समीक्षा
या क्षेत्रांतच. हे सगळे ज्ञानक्षेत्रीय लेखन आहे.
तीन गुरुवर्य
अवधूत दत्तात्रेयाने चोवीस गुरू केलेत; या अध्यापक दत्तात्रेय भिकाजीने फक्त
श्री ज्ञानेशर, मर्ढेकर आणि डॉ. गणेश त्र्यंबक देशपांडे.
ज्ञानेश्वर महाराजांबद्दल काय बोलावं! योगी-दार्शनिक-षी-संत-कवी असे
ते रसायन. त्यांचे परिपूर्ण वर्णन करता येत नाही म्हणूनच की काय, आपण त्यांना
माउली म्हणतो! विेशात असे हे एकच उदाहरण आहे की जिथे ग्रंथ आणि ग्रंथकार या
उभयतांना एकच संज्ञा आहे : 'माउली'. या माउलीचे अंत:करण नितळ, निर्मळ
आणि हळुवार. लौकिकातील माता फक्त आपल्या अपत्यावर निरपेक्ष माया करते;
ज्ञानराज सर्व विेशावर अपत्यवत माया करतात. या त्यांच्या मायेलाच मी
'विेशवात्सल्य' असे म्हणतो. अस्सल आणि अव्वल साहित्यकृतीत दोन गुण
अवश्यमेव असतात : १) विेशवात्सल्य २) भावकाव्यात्मता. श्री ज्ञानेशरी हे
भाष्यकाव्य, तत्त्वकाव्य; परंतु तिच्यात भावकाव्यगुण ओतप्रोत भरलेला आहे.
ज्ञानेशरी ही केवळ साहित्यकृती नाही तर ती साहित्यकृतींचा संभारही आहे.
ज्ञानेशरीत जागोजाग मंत्र, धावा, प्रार्थना, पाळणा, आरती, स्तोत्र, अभंग इत्यादी
स्फुट रचनाप्रकारांची रेलचेल आहे- या दृष्टीने ज्ञानेशरीकडे आपण अजून पाहिलेच
नाही. ज्ञानेशरी हे गीताभाष्य आहे हे खरे; पण तिने गीतेचा रूपबंध नजरेसमोर
ठेवलेला नाही. तिचा आदर्श आहे महाभारत. म्हणून तर माउलीने महाभारताची
उत्कट आणि शास्त्रोक्त प्रशंसा केली आहे. 'महाकाव्या रावो। ग्रंथ गरुवतीच्या ठावो।
येथौनि रसा जाला आवो। रसाळपणाचा।।' हे ज्ञानेशरांचे उद्गार महाभारताइतकेच
ज्ञानेशरीसही लागू पडतात.
वाङ्मयकृतीमध्ये भावकाव्यात्मता हा गुण येतो तो पद्यामुळे किंवा
नादमधुरतुेळे नव्हे; अनुभवाला स्थलकालमुक्त केल्यामुळे वाङ्मयकृती
भावकाव्यात्मता येत असते. ज्ञानेशरीतील अनुभूती अद्वैताची आहे; ती
स्थलकालसापेक्ष असेलच कशी? मनोविकृतीतून निर्माण झालेले साहित्य आपण
वाचलेले आहे; समाजविकृतीतून निर्माण झालेले साहित्यही आपण वाचतोच
आहोत. श्री ज्ञानेशरी मात्र साक्षात्काराच्या अनुभूतीतून उद्भवलेली साहित्यकृती
आहे. ती रस्त्याच्या काठी उगवलेली रानवेल नाही तर पिढ्यान् पिढ्या संगोपन
केलेली ती उपवनातील कल्पकता आहे. गहिनीनाथांनी आपले शिष्य निवृत्तिनाथ
यांना सामान्यांच्या उद्धारासाठी प्रवृत्त केले.
आधिं तो तंव कृपाळु
वरि गुरुआज्ञेचा बोलु
जाला जैसा वरिषाकाळु
खवणलें मेघां।।
मग आर्त्ताचेन ओरसें
गीतार्थ ग्रथनमिसें
वरिखला शांतरसें
तो हा ग्रंथू।।
तेथ पुढां मी बापिया
मांडलां आर्त्ती आपुलेया
ययासाठिं यवडेया
आणिलां यशा।।
ज्ञानेशरमाउली स्थलकालमुक्त; ज्ञानेशरीही स्थलकालमुक्तच असणार. ती
नुसती समजून घ्यायची नाही, अनुभवायची. त्यांच्या साक्षात्काराच्या अनुभूतीत
आपले सीमित व्यक्तित्व विसर्जित करून टाकायचे.
जी व्यक्ती व्यक्तित्वमुक्त होते, आपले सीमितपण विसर्जित करते ती सर्व
विेशाची होते, सर्व विेश तिचे होते. 'हे विेशचि माझे घर' असे ती अगदी वाच्यार्थाने
म्हणू शकते. काय गंत आहे पाहा : श्री ज्ञानेशर गीतानिरूपण करताहेत. अशा प्रसंगी
ग्रंथकाराने भगवान कृष्णाची भूमिका स्वीकारणे किती स्वाभाविक! पण ज्ञानेशरीभर
ज्ञानेशर भूमिका स्वीकारताहेत ती निवृत्तिसुताची, बालकाची; आणि आपण सारे
मात्र त्यांना म्हणतो माउली. का? ज्ञानेशरांनी आपल्या निरुपाधिक आणि निरपेक्ष
मायेच्या उबदार आणि मऊ दुलईत सर्व विेशाला लपेटून घेतले आहे- छातीशी आणि
पोटाशी धरले आहे म्हणून. या जगात काही केवळ संतांचीच मांदियाळी नाही; 'चोर,
लबार, जुआरी' यांचीही रेलचेल आहे. आचार्यांप्रमाणे या निवृत्तिदासालाही माहीत
आहे, की हा विेशव्यवहार सत्य आणि असत्य यांच्या ताण्याबाण्याने विणलेला
आहे; पण म्हणून माउली नावाचा हा कल्पवृक्ष, ज्याने लावणी केली त्याला मी छाया
देईन आणि 'जो खांडावेया घाव घाली' त्याला छाया देणार नाही असे म्हणत नाही.
विेशवात्सल्य ते हेच. 'अलांच्छन चंद्रमे' असे संत आणि दुरिताने ग्रासलेले
व्यंकटराव या साऱ्यांनाच माउली पोटाशी धरते. आपण आपले म्हणत असतो,
समाजाने या भावंडांचा छळ केला. आपल्या परिमित दृष्टीने ते खरेच असते; पण
माउलीस तो छळ 'छळ' वाटला असेल? त्यांना ती अज्ञजनांची कृतीच वाटली
असणार. त्यांनी केवळ क्षमाबुद्धीने नव्हे तर मातृवात्सल्याने त्याकडे पाहिले
असणार. म्हणून मला नेहमी असे वाटते, की ज्ञानोबा रुसून-रागावून कुटीचे दार बंद
करून बसलेच नसतील. मुक्ताईला तसे वाटले असेल की नसेल कोणास ठावूक!
कदाचित भोवतीच्या नव्या संतांना धडा म्हणून त्या बहिणाबाईने आपल्या
अभंगाच्या द्वारे ताटीचे द्वार किलकिले केले असेल. अरे बाबा, हे कवी 'बीं'ना कळले
होते म्हणून तर त्यांनी 'चाफा' ही कविता लिहिली. चाफ्याच्या प्रेयसीला की
बहिणीला वाटते की चाफा खंत करतो- जणू काय तो रुसून-रागावून कुटीचे द्वार बंद
करून बसला आहे. बिच्चारीला अखेरीस कळते, की चाफा रुसलाही नव्हता,
रागावलाही नव्हता; दृष्टी आपली अधू होती; तो समाधिअवस्थेत होता.
मुळे ज्ञानेशरीची अशी दूर दूर पसरली आहेत; मात्र ती मराठी संस्कृतीच्या
गळ्याची तात नाही, ताईत आहे. माउलीने नाथपंथातील ज्ञान आणि भागवतपंथातील
भक्ती यांचा समन्वय साधला आहे. श्री ज्ञानेशर हा अजानवृक्ष नाही, ज्ञानवृक्ष आहे.
हा ज्ञानवृक्ष नामदेव महाराज आणि त्यांची प्रभावळ यांच्या रूपाने पंजाबपर्यंत
पसरला. आचार्य विनोबांनी नामदेव महाराजांच्या कार्याचे फार सूक्ष्म विवरण केले
आहे. त्यांनी सांगितले आहे, जिथे जिथे एकेशरी परधर्म वाढला तिथे तिथे नामदेव
महाराज पोचले. या महामानवाने 'ईेशर एकच आहे, त्याची रूपे अनंत आहेत' असा
वेगळा आणि व्यापक एकेशरवाद प्रसृत केला; एकेरी एकेशरवादाला शह दिला!
एकनाथ महाराजांना तर ज्ञानाचा 'एका' अशी बिरुदावली होती. नाथांनी माउलीच्या
गळ्याला लागलेली अजानवृक्षाची मुळी दूर सारली, समाधिस्थलाचे पुनरुज्जीवन
केले, ज्ञानदेवीची पाठशुद्ध प्रत तयार केली, एकनाथी भागवताच्या रूपाने ज्ञानेशरीचा
बहुजनसुलभ अवतार साकार केला- आपली बिरुदावली सिद्ध केली; आणि
तुकोबा? 'ज्याचे अभंग लागती खलहृदया जेवि बाण रामाचे' या भूमिकेने त्यांनी
समाजाचे शुद्धीकरण केले; त्यांनी ज्ञानोबांचा जयजयकार केला. आचार्य विनोबांनी
म्हटलेच आहे, श्री ज्ञानेश्वर हा हिमालय आहे तर श्री तुकोबा ही त्यातून निघालेली
गंगा आहे. ती सामान्याचे पापताप धुऊन काढून त्याला पवित्र, सुंदर करीत आहे.
ही झाली जुनी, मध्ययुगीन हकीकत. अर्वाचीन काळातही ज्ञानदेव ही शक्ती
कार्यक्षमच आहे. साहित्य संमेलनाचे प्रवर्तक न्या. महादेव गोविंद रानडे यांच्या
जीवनकार्याचा प्रेरणास्रोत संतवाङ्मय हाच होता- पर्यायाने श्री ज्ञानेशर. 'संत दिसती
वेगळाले। परि ते स्वरूपी असती मेळाले।।' हे वचन या अर्थानेही खरे आहे. ज्ञानेशर-
माउलीची जीवनदृष्टी आणि जीवनसरणी समन्वयवादी होती. म्हणून तर त्यांनी
सगुणोपासक नामदेव महाराजांना निर्गुणोपासक विसोबा खेचरांकडे पाठवले; त्यातून
सगुणोपासकाला निर्गुणोपासनेचे आणि निर्गुणोपासकाला सगुणोपासनेचे महत्त्व
जाणवून दिले; नाथ आणि वारकरी या पंथांध्ये समन्वय साधला; संस्कृत भाषा
आणि मराठी भाषा यांतील दूरत्व दूर केले. वैर, विद्वेष, संघर्ष यांना माउलीच्या मनात
स्थानच नाही. माउली कैवल्याचाच नाही तर मायेचाही पुतळा आहे. त्यांनी प्रतिपादन
केलेली 'शिवशक्तिसमावेशन' म्हणजे द्वैतवाद आणि अद्वैतवाद यांच्यांतील
समन्वयच आहे. इथे 'समन्वय' आणि 'तडजोड' या दोन शब्दांतील फरक लक्षात
ठेवला पाहिजे. तडजोडीत तोडणे आणि जोडणे अशी क्रिया असते, तडजोडीत दोन्ही
पक्षांना काही तरी गमवावे लागते तेव्हाच तडजोड होते; उलट समन्वयात दोन्ही पक्ष
लाभार्थी असतात, दोन्ही पक्षांना पस्तुरी लाभते.
समन्वयवादाची पस्तुरी
श्री ज्ञानेशर महाराज यांनी मराठी संस्कृतीला समन्वयवादाची पस्तुरी दिली
आहे. न्यायमूर्तींचा नेस्तवाद, उदारमतवाद हा ज्ञानेशरांच्या समन्वयवादाचाच
आविष्कार होय. त्यातूनच तर साहित्य संमेलन ही कल्पना उदित झालेली आहे. 'येथ
साहित्य आणि शांती । हे रेखा दिसे बोलती । जैसी लावण्यगुण युवती। आणि
पतिव्रता।।' ही साहित्य संमेलनाची खरी प्रकृती आहे.
एका फ्रेंच भाषाशास्त्रज्ञाने किंचित उपहासाने म्हटले आहे की भाषांतरित कृती
ही युवतीसारखी असते : ती सुंदर असते तेव्हा प्रामाणिक नसते आणि प्रामाणिक
असते तेव्हा सुंदर नसते! हे अगदी चूक आहे. कदाचित अन्य समाजाचा तसा अनुभव
असेलही. आपला अनुभव मात्र- निदान आदर्श- 'लावण्यगुण युवती आणि
पतिव्रता' हाच आहे. स्वैराचार आणि एकनिष्ठा यांतील हेय-श्रेय आता
मानवजातीच्या लक्षात येत आहे. निदान आरोग्यासाठी तरी एकनिष्ठा आवश्यक आहे
हे आता तरी मानवजातीला पटायला लागले आहे.
ज्ञानेशरीप्रेरणा न्यायमूर्तींपाशीच थांबली नाही; ती आचार्य विनोबांपर्यंत जाऊन
पोचली. 'मराठी साहित्य - ज्ञानेशरी = ०' अस विनोबाजींनी म्हटले आहे. मी त्यात
थोडा बदल करतो : 'मराठी संस्कृती- ज्ञानेशरी = ०'. ज्ञानेशर या साक्षात्कारी शक्तीने
मराठी संस्कृती घडवली- वाढवली, तिला शिवतत्त्वाचे अधिष्ठान दिले. नामदेव
महाराज, एकनाथ महाराज, तुकाराम महाराज, न्या. रानडे, आचार्य विनोबा यांच्या
स्वरांत आपणही त्या महाशक्तीचा जयजयकार करू या.
महाराष्ट्राचे भौगोलिक स्थान आणि सांस्कृतिक भान पाहिले की ज्ञानाईचा
समन्वयवाद किती प्रयोजनपूर्ण आणि आशयगर्भ आहे याची जाणीव होते :
भौगोलिकदृष्ट्या महाराष्ट्र भारतवर्षाच्या हृदयस्थानी आहे. इथून सांस्कृतिक
रक्तवाहिन्या पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण पसरल्या आहेत. इथला युयुत्सु स्वार सुरतअट
क, कटक-तंजावर इथपर्यंत पोचला. इथला संतांचा अमृतसागर कराचीपासून
काशीपर्यंत, काशीपासून रामेशरापर्यंत हेलावत राहिला. महाराष्ट्र माझा कलाकुसर
आणि व्यापारउदीम यांत थोडा डावा पडत असेल; पण त्याची कसर तो शक्ती आणि
भक्ती यांत भरून काढतो. महाराष्ट्राच्या या शक्ती-भक्तीने 'भारत जोडो' अभियान
साधले. प्रांतोप्रांतीचे समाज इथे विसावले. त्यांनी त्यांच्या प्रादेशिक आणि भाषिक
विशेषांचे सत्त्व इथे ओतले, मराठी संस्कृतीला बहुरूपी आणि बहुुखी केले. महाराष्ट्र
संस्कृतीचे वैशिष्ट्य हे, की अशा विविध घटकांनी तिची एकसंधता दुभंगली नाही.
महाराष्ट्र संस्कृतीकडे पाहिल्यावर रहमानच्या कोलाज संगीताचे स्मरण होते ते उगाच
नव्हे!
पूर्व महाराष्ट्र वगळून उर्वरित महाराष्ट्र डोंगराळ प्रदेश आहे. डोंगराळ प्रदेशातील
समाजाची अस्मिता तीव्र असते, असे समाजशास्त्रज्ञ सांगतात. मराठी माणसाची
अस्मिता उत्कट आहे त्याला हे भौगोलिक कारणही आहेच. वंगसमाज आणि
दाक्षिणात्य समाज यांच्या अस्मितेला असे भौगोलिक कारण दिसत नाही. त्यांच्या
अस्मितेस एक निमित्त आहे त्यांची लिपी. हिंदी आणि मराठी या दोन्ही भाषांची लिपी
एकच- देवनागरी- आहे. त्यामुळे मराठी माणसास हिंदी आत्मसात करणे सोपे.
ज्यांची लिपी देवनागरी नाही त्यांना मात्र हे अवघड. अशा भिन्नलिपीय समाजाचे
अनुकरण करण्याऐवजी आपण त्यांना देवनागरीकडे वळवले पाहिजे. त्यामुळे हे
भिन्नलिपीय समाज मराठी भाषेच्या सहज जवळ येतील. भारतातील भाषिक वादाचे
एक कारण लिपिभिन्नता आहे हे आपण लक्षातच घेत नाही.
मेजर टॉस कॅंडी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, आचार्य विनोबा भावे यांनी
देवनागरीतील विरामचिन्हे आणि वर्णलेखन यांत अनेक सुधारणा सुचविल्या; परंतु
त्या अजूनही आपल्या पचनी पडल्या नाहीत. देवनागरीत अधोबिंदू (नुक्ता) असावा
म्हणजे मग च-च्य, ज-ज्य हा उच्चारभेद परभाषकांना आणि जनसामान्यांना कळेल,
असा कॅंडीसाहेबांचा आग्रह किती रास्त होता; परंतु अव्वल इंग्रजीतील पंडितांना तो
रुचला नाही. त्याचा दुष्प्रभाव आजतागायत आपण सोसतो आहोत.
भाषाशुद्धी आणि भाषासमृद्धी
भाषाशुद्धीसंबंधीची आपली भूमिकाही आपण अशीच जोखून घेतली पाहिजे.
पारतंत्र्याच्या काळात भाषाशुद्धी ही स्वातंत्र्यलढ्याचेच एक हत्यार होते. परभाषिक
शब्द अव्हेरण्याने स्वातंत्र्याची चाड धारदार होत होती, परकीयांबद्दलची चीड
चेतवली जात होती. आता स्वातंत्र्यकाळात भाषाशुद्धीचा विचार भाषासंस्था आणि
सांस्कृतिक सातत्य या अंगाने केला पाहिजे. परभाषेतील शब्द घेऊच नये अथवा
परभाषेतील शब्द बिनदिक्कत वापरत जावेत, या दोन्ही भूमिका एकांगी आहेत. अहो,
परकीय शब्दांनी भाषा विटाळत नाही, परकीय प्रत्यय आणि क्रियापदे यांनी भाषा
विटाळते. परकीय शब्दही घ्यायचे ते अर्थभेद आणि भावभेद लक्षात घेऊन. तसे
आपण नकळत करीतही असतो. जसे : वैद्य-डॉक्टर, मेज-टेबल, लेखणी-पेन इ.
परंतु नेहमीच असा विवेक आपण बाळगतो असे नाही. आपल्या भाषेतील रूढ,
रुचकर आणि स्वादिष्ट शब्द हुसकावून त्यांच्या जागी सांस्कृतिक सातत्य नसलेले
मड्डमी शब्द वापरणे म्हणजे खचितच आपली भाषा भ्रष्ट करणे होय; परंतु आपला मूळ
शब्द कायम ठेवून त्यापेक्षा किंचित वेगळी अर्थच्छटा किंवा भावच्छटा दाखवणारा
परभाषिक शब्द वापरणे यात गैर काहीच नाही- नव्हे, ते भाषासमृद्धीचे लक्षण आहे.
आंग्लभाषेने घी, पक्का, तिपाई, बंदोबस्त असे किती तरी भारतीय शब्द अंगीकारले
आहेत, त्यामुळे इंग्रजी भाषेची शब्दसंपत्ती वृद्धिंगत झाली आहे. परकीय शब्दांना
भिऊ या नको. अशा भीरुतोगे सांस्कृतिक अभिमान थोडा आणि सांस्कृतिक
न्यूनगंड जाडा असतो
भाषाशुद्धीबरोबरच भाषासमृद्धीकडेही आपण लक्ष दिले पाहिजे. ही
भाषासमृद्धी कशी येते? केवळ परभाषेतील भिन्न अर्थच्छटा असलेले शब्द
स्वीकारल्याने नव्हे- ती चिंचोळी पायवाट आहे. तिच्याच जोडीला बोलीतील शब्द
स्वीकारले पाहिजेत. आपल्या भाग्याने प्राण मराठीला अनेक बोली लाभल्या
आहेत: वऱ्हाडी, खानदेशी, दखणी, मावळी इ. इ. अहो, बोली हेच भाषासंस्थेचे
आद्य रूप असते. कुठलीही बोली ऐका- तिच्यात तालबद्धता, नादमधुरता,
भावपूर्णता हे गुण ओतप्रोत असतात. कालांतराने तिच्यातील तालबद्धता आणि
नादपूर्णता यांचा विकास होऊन पद्यभाषा जन्मास येते तर तिच्यातील सुप्त वैचारिकता
पल्लवित होऊन गद्यभाषा अवतीर्ण होते. बोली, भाषा आणि परिभाषा यांच्यांतील
भेद-प्रभेद आकळले म्हणजे त्यांच्यांत उच्चनीचता नसून प्रयोजनभेद आहे हे लक्षात
येते. परिभाषा फक्त शास्त्रातच नसते; प्रत्येक जीवनव्यवहारात, तो व्यवहार सुलभ
करण्यासाठी, अलिखित परिभाषा असतेच. कास्तकाराची परिभाषा वेगळी आणि
गृहिणीची परिभाषा वेगळी. माझ्या बालपणी खेड्यातल्या माझ्या मावश्या पातेलं-
तपेलं-भगुलं-ओगराळं-पळी-डाव-सराटा-उलथणं-झारा-भांडं-फुलपात्र-
तांब्या-गडवा-कळशी-घागर-बादली-घंगाळं-हंडा-गुंड अशी माजघरातली
परिभाषा हमेशा वापरत ती काय आपलं पांडित्य दाखवायला? नाही, व्यवहार सुकर
आणि अचूक व्हायला. शास्त्रातली परिभाषासुद्धा याच हेतूने पण अधिक प्रगल्भतेने
निर्माण होत असते. आपल्या अज्ञानामुळे अथवा आलस्यामुळे ती आपणांस अवघड
वाटत असते. खरे तर तिच्यामुळे विषय अचूक आणि आकलनक्षम होत असतो.
एखादे नवे शास्त्र जेव्हा परदेशातून आपल्या प्रदेशात येते तेव्हा स्वाभाविकच
परभाषेतील परिभाषा जशीच्या तशी वापरावी लागते किंवा ती भाषांतरित करावी
लागते. काहीही केले तरी प्रारंभी प्रारंभी ही नवशास्त्रातील नवपरिभाषा अपरिचित
म्हणून अवघड आणि क्वचित हास्यास्पदही वाटते. कार्यालय, सचिवालय, मंत्रालय,
संचालनालय, संभाग, प्रभाग हे शब्द आता मराठीत रूढ झाले आहेत; पण एके
काळी मात्र तो चेष्टेचा विषय होता. लोकमान्य आणि स्वातंत्रवीर यांनी या प्रक्रियेस
चालना दिली. कालांतराने मध्यप्रदेश सरकारच्या प्रेरणेने डॉ. रघुवीर यांनी प्रचंड कार्य
केले. दुर्दैवाने त्यांची चेष्टा आणि उपेक्षा झाली. आमच्या परिभाषा समितीतील एक
घटना सांगतो : बोलता बोलता 'डॉ. रघुवीर' हा विषय निघाला. आमच्यातील एक
सदस्य कुचेष्टेने म्हणाले, ''रघुवीर? त्याने नेकटायला 'कंठलंगोट' असा प्रतिशब्द
दिला आहे.'' मी तडकलोच. म्हटलं, ''असं नाही.'' हळूहळू चर्चेला वादाचं स्वरूप
आलं. मी म्हटलं, ''मागवा रघुवीरांचा महाकोश.'' आला. मी नेकटाय शब्द
दाखवला. त्याला कंठलंगोट असा प्रतिशब्द नव्हता, नेकटायपेक्षाही सुबक आणि
अन्वर्थक शब्द होता: 'कंठभूषण'. किती देखणा आणि सांस्कृतिक सातत्य राखणारा
शब्द! शिरोभूषण, कर्णभूषण तसा कंठभूषण. डॉ. रघुवीर महापंडित होते. त्यांनी
खरोखरच अनेकानेक पारिभाषिक संज्ञा भारतीय भाषांना बहाल केल्या आहेत.
कृत्रिमपणा, बोजडपणा, संस्कृतप्राचुर्य असे अनेक आरोप त्यांच्यावर करण्यात
आलेत, त्याची पुन्हा एकदा शहानिशा व्हायला हवी आहे. अहो, पारिभाषिक संज्ञा
सुट्या नसतात, त्यांचे कुल असते. जसे, विधी-विधान-संविधान-प्राविधान हे
शब्दांचे एक कुल आहे. व्यवहारात सोपे समजले जाणारे शब्द असे कुलसाधक
नसतात. 'वराह'पासून वराहपालन, वराहवर्ग, वराहव्याधी असे शब्द तयार होतातत्य
ातून ग्राम्य भावनेचा परिहार होतो; परंतु त्याच्याऐवजी व्यवहारातील 'डुक्कर' हा
शब्द पारिभाषिक संज्ञा म्हणून स्वीकारला तर तिथे ग्राम्यतापरिहारही होत नाही व
त्याच्यापासून शब्दकुल निर्माण होणेही कठीण होते.
बोली, भाषा व परिभाषा यांच्या संदर्भातील हा विवेक आपण नेहमी
अंत:करणात बाळगला पाहिजे.
साहित्याची भाषा
'साहित्याची भाषा' ही आणखीच एक वेगळी गुहा आहे. म्हणताना आपण
म्हणतोच, 'ही मराठी कादंबरी', 'हे इंग्रजी नाटक', 'ही रशियन कथा'. आपले हे
बोलणे खरेच असते; परंतु तिथे आपण साहित्यकृतीसंबंधी बोलत नसतो तर तिचे
भाषिक वर्णन करीत असतो. साहित्यकृतीची दर्शनी भाषा अशी देशकालवाचकच
असते. साहित्यकृतीचा आस्वाद घेताना तिचे हे दर्शनी अस्तित्व आकळावेच लागते.
ते न कळताही साहित्यकृतीचा आस्वाद घेता आला असता तर मग आणखी काय हवे
होते? कुठल्याही भाषेतील साहित्यकृती ती भाषा न शिकता आपण अनुभवू शकलो
असतो! साहित्यकला आणि साहित्येतर ललितकला यांच्यांतील हा भेद निर्णायक
आहे. जर्मन संगीतकाराचे संगीत, रशियन नर्तिकेचा बॅले, फ्रेंच चित्रकाराचे चित्र
आपण जसे आस्वादू शकतो तशा त्यांच्या त्यांच्या भाषेतील साहित्यकृती आस्वादू
शकत नाही. असे का होते? संगीत-नृत्य-चित्र या संवेदनानिष्ठ कला आहेत. संवेदना
सार्वत्रिक असतात, निसर्गदत्त असतात. याच्या उलट साहित्यकला संवेदनानिष्ठ
कला नाही, ती भाषा (सामग्री) आणि अनुभूती (माध्यम) यांनी घडलेली असते.
भाषासंस्था निसर्गदत्त नसते, ती मानवनिर्मित, समाजनिर्मित संस्था आहे. जर ती
निसर्गनिर्मित असती तर संवेदनांप्रमाणे ती सार्वत्रिक झाली असती, जगात सर्वत्र
एकच एक भाषा असती. आपणा सर्वांची मग किती सोय झाली असती! पण असे
नाही रे बाबा! त्या त्या भाषेतील साहित्यकृती अनुभवण्यासाठी त्या त्या भाषेचे ज्ञान
अपरिहार्य असते- कवीला आणि आस्वादकालाही. दुर्बोध समजल्या जाणाऱ्या
वाङ्मयकृतीच्या संदर्भात कवीचे किंवा रसिकाचे भाषाज्ञानच तर तोकडे पडत असते.
कवितेच्या व्याख्या अनेक आहेत. त्यापैकी, 'पोएट्री इज लॅंग्वेज चार्ज्ड विथ मीनिंग
टु इट्स अटमोस्ट पॉसिबल डिग्री.' कमाल अर्थवत्तेने भारलेली भाषा म्हणजे
कविता- हे जर खरे असेल तर दुर्बोध कविता ही कविताच नव्हे- कवीच्या वा
वाचकाच्या अंगाने- कारण ती भाषिक कृतीच नसते, तो केवळ भाषाभास असतो.
ज्या कवितेला दर्शनी अर्थच नाही तिला कविता काय, भाषा तरी कसे म्हणायचे?
आणि कवितेची व्याख्या तर 'कमाल अर्थवत्तेने भरलेली भाषा' अशी...! काय?
भारतीय साहित्यशास्त्राने अर्थाचे काय उगाच इतके प्रकार सांगितले?-
१) वाच्यार्थ ऊर्फ संकेतित अर्थ ऊर्फ मुख्यार्थ
२) तात्पर्यार्थ ऊर्फ वाक्यार्थ
३) लक्ष्यार्थ ऊर्फ अर्पितार्थ
४) व्यंग्यार्थ ऊर्फ ध्वन्यर्थ ऊर्फ प्रतीयमान अर्थ
परिभाषेत निर्भेळ वाच्यार्थ असतो, व्यावहारिक भाषाही वाच्यार्थप्रधानच
असते. शास्त्रीय लेखनात अत्यावश्यक प्रसंगीच लक्षणा वापरायची असते. ज्यांना
आपण वाक्यप्रचार, म्हणी, अलंकार म्हणतो ते सर्व लक्ष्यार्थाचे प्रकार असतात.
अनेकदा समाजात म्हणींचा लाक्षणिक अर्थ लक्षात न घेता केवळ वाच्यार्थ लक्षात
घेऊन त्यावर रण माजवले जाते त्याचे कारण लक्ष्यार्थज्ञान हेच होय.
वाङ्मयामध्ये वाच्यार्थ असतो, लक्ष्यार्थ असतो; शिवाय या दोन अर्थांतून
निर्माण होणारा, अर्थाचा अर्थ असा, व्यंग्यार्थ असतो. व्यवहारात अगदी पुसटपणे
आणि अपवादाने व्यंग्यार्थ आविष्कृत होतो तर वाङ्मयकृती व्यंग्यार्थप्रधानच असते.
व्यंग्यार्थहीन काव्य हे काव्यच नसते. त्याला आनंदवर्धनाने 'अधमकाव्य' म्हटले
आहे. तेव्हा त्याचे विरोधक म्हणाले, ''व्यंग्यार्थहीन काव्य जर काव्यच नसते तर
त्याला तुम्ही अधम 'काव्य' तरी का म्हणता?'' बिनतोड वाटतो ना प्रश्न? पण
आनंदवर्धनाचे उत्तर त्याहूनही बिनतोड आहे. तो म्हणतो, ''तुम्ही म्हणता ते खरे
आहे. व्यंग्यार्थहीन काव्य काव्यच नसते, तरीही आम्ही त्याला अधम 'काव्य'
म्हणतो, त्यामागची कवीची काव्यनिर्मितीची इच्छा लक्षात घेऊन!''
व्यंग्यार्थ हा अर्थझंकार असतो, तो अर्थसंस्कार असतो. त्याच्या
आकलनासाठी वाचकापाशी प्रतिभा असावी लागते- नुसती रसिकता नाही. म्हणून
तर मम्मटाने रसिकाला 'प्रतिभाजुष' म्हटले आहे, 'सहृदय' म्हटले आहे- ज्याला
कवितेचे हृद्गत कळते तो सहृदय.
साहित्यातील मूल्यभाव
मित्रांनो, मला अर्थाचा आणखी एक प्रकार जाणवतो : व्यूहार्थ.
वाङ्मयकृतीमध्ये शब्द, वाक्य, अर्थ, अर्थाचा अर्थ हे सारे असतेच- असावेच; परंतु
हे अर्थ स्थिर नसतात; फिरते, गतिमान, चैतन्यपूर्ण असतात. या जिवंतपणातून त्या
अर्थपुंजाला लय लाभत असतो. या लयधर्मातून विविध अर्थांचे विविध बंध तयार
होतात. संगीतकलेच्या जाणकाराला ही प्रक्रिया सहज लक्षात येईल. या लयबद्ध
अर्थपुंजांनाच मी लयव्यूह असे म्हणतो. वाङ्मयकृतीची खरी भाषा लयव्यूहाची
भाषा असते. ती कालची नसते, आजची नसते, ती मराठी नसते, अमराठी नसते, ती
लयाची-चैतन्याची-सौंदर्याची-रसाची चिरकालिक भाषा असते.
ती समजायची नसते, आस्वादायची असते. ती आस्वादण्यासाठी
तिच्याप्रमाणेच आपल्यालाही देशकालपरिस्थिती या सीमेपासून मुक्त व्हावे लागते.
आपले व्यक्तिबंधन असे सुटले की आपला आस्वाद स्वसापेक्ष न राहता मूल्यसापेक्ष
होतो. कसा?
वस्त्रहरण चांगले की वाईट, असा प्रश्न कुणी कुणाला विचारला, तर हिप्पी-
डान्सबाला-साधू-स्त्री-पुरुष या सगळ्यांची उत्तरे वेगवेगळी येतील. ती सर्व उत्तरे
देशकालपरिस्थितिसापेक्ष असतील; पण 'द्रौपदीवस्त्रहरण' आपण जेव्हा नाटकात
पाहतो, तेव्हा 'मी स्त्री आहे/ पुरुष आहे / भारतीय आहे' असा सीमित भाव आपल्या
मनात नसतो. तिथे आपण स्वमुक्त मूल्यभावाने त्या प्रसंगाचे ग्रहण करीत असतो.
अन्याय-अत्याचार-विटंबना यांच्या दर्शनाने न्याय-स्वातंत्र्य-सन्मान या
मूल्यभावाने आपण तो प्रसंग ग्रहण करतो. ही स्वमुक्त, मूल्यनिष्ठ अवस्था आनंदमय
असते.
याचा अर्थ वस्त्रहरण नेहमीच त्याज्य आहे का? अरे बाबा, दु:शासनाने केलेले
द्रौपदीचे वस्त्रहरण त्याज्यच; पण श्रीकृष्णाने गोपींचे केलेले वस्त्रहरण मात्र त्याज्य
नव्हे. का? कृष्णाप्रमाणे आपण पुरुष आहोत म्हणून? की अशाच काही व्यक्तिगत
कारणाने? नव्हे. द्रौपदीप्रकारात बळजबरी आहे, द्वेष आहे; स्त्रीजातीचा नव्हे तर
मानावाच्या स्वातंत्र्याचाच तिथे अपमान आहे. स्वमुक्त, मूल्यात्मक आकलन ते हे.
उलट, श्रीकृष्णाने केलेल्या वस्त्रहरणामुळे गोपींना गुदगुल्या होत असणार; कारण इथे
उभयपक्षी प्रे आहे, स्वातंत्र्य आहे. सीताहरण आणि रुक्मिणीहरण यांच्यांतील
फरकही आता लक्षात येईल.
वाङ्मयकृतीमध्ये अनुभव दिसतो विशिष्टाचा; पण त्या विशिष्टातून तो
आपणांस अंतिम मूल्याच्या आधारे विेशात्मकतेकडे नेत असतो. व्यवहारात आपण
सामान्याकडून म्हणजे वर्गाकडून विशिष्टाकडे जात असतो. विशिष्टाशी देवाणघेवाण
करता येते. उलट, वाङ्मयामध्ये आपण विशिष्टाकडून वर्गाकडे,
सामान्याकडे, विेशात्मकतेकडे जात असतो. अशा अमूर्ताशी देवघेव कशी करता
येईल? तिथे फक्त मूल्यगर्भ आस्वादच शक्य असतो. हा स्वमुक्त, मूल्यगर्भ आस्वाद
अनेक कारणांनी अनुभवसमृद्धी देणारा आणि आनंददायी असतो. हे का शक्य होते?
वाङ्मयीन पुनर्जन्म
काव्यनिर्मितिक्षणी कवीही अशाच स्वमुक्त आणि मूल्यगर्भ भूमिकेतून निर्मिती
करीत असतो; तो काही स्वत:ची खासगी सुखदु:खे चिवडीत नसतो- भलेही तशी
सुखदु:खे सामग्री म्हणून त्याच्या लेखनात येत असली तरी. कवीच्या या भूमिकेलाच
लौकिकभिन्न भूमिका असे म्हणतात.
कवीची भूमिका लौकिकभिन्न, रसिकाची भूमिका लौकिकभिन्न. पाण्यात पाणी
मिसळलं तर हे पाणी वेगळे आणि ते पाणी वेगळे, असे काही म्हणता येत नाही. कवी
आणि रसिक यांची भूमिका एकजातीय असल्यामुळे त्या भूमिका पूर्ण एकरूप होतात
यात आश्चर्य कसले?
कवी आणि रसिक यांचे असे ऐकात्म्य व्हायचे तर भाषा
स्थलकालपरिस्थितिसापेक्ष असून कशी चालेल? तीही स्वमुक्त आणि मूल्यगर्भ
असावी लागते. अहो, व्यंग्यार्थ म्हणजे तरी आणखी दुसरे काय? तो अर्थाचा अर्थ
असतो, तो अर्थसंस्कार असतो, तो अर्थझंकार असतो, तो अर्थव्यूहाची भाषा असतो
याचाच अर्थ तो स्थलकालपरिस्थितीची कवचे दूर सारणारा अर्थ असतो. 'आधी
बोलाची वालीफ फेडिजे' असे ज्ञानदेव का उगाच म्हणतात?
कवी, काव्यभाषा आणि रसिक या तीनही घटकांचे असे अवस्थांतर होत
असते; या तीनही घटकांचा उन्नत पुनर्जन्म होत असतो.
वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा सिद्धांत तो हाच.
आपले दैनंदिन व्यावहारिक जीवन ही सामान्य बाब नव्हे. त्याचे मोल अनन्य
आहे. त्याचे स्वरूप व महत्त्व आपण लक्षात घेतले पाहिजे. काय असते आपल्या
व्यावहारिक आयुष्याचे स्वरूप? सकाळी उठल्यापासून पहाटे जागं होईपर्यंत, जन्म,
खेळ, शिक्षण, चाकरी, विवाह, संसार, आरप, मृत्यू. जागृती, निद्रा, स्वप्न. या
साऱ्या घटना आणि अवस्था भिन्न भिन्न आणि लहान-मोठ्या आहेत. पूजाअर्चा,
नवससायास, सणयात्रा ही जंत्री हवी तेवढी वाढविता येईल. धर्म, अर्थ आणि काम
या तीन पुरुषार्थांशी हे आपले व्यावहारिक जीवन जखडलेले असते- नव्हे, त्यामुळेच
आपल्या जीवनाला केंद्र-आशय-आकार प्राप्त होत असतो. आपले व्यावहारिक
आयुष्य आशयशून्य असते तर आपल्यांत आणि पशुपक्ष्यांच्या आयुष्यांत काही
भेदच राहिला नसता; आपण पुच्छशिंगरहित जनावर ठरलो असतो.
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष यांना अंतिम जीवनमूल्यांचे स्थान आहे. ही
जीवनमूल्ये कधीही साधनात्मक नसतात, साध्यरूप असतात. ती कधीही
'कशासाठी' नसतात, 'त्यांच्यासाठी' सर्व काही असते. त्यांचा हा क्रमदेखील
अर्थपूर्ण आहे :
१) धर्म- समूहनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
२) अर्थ- व्यक्ती-समूहनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
३) काम- व्यक्ती-व्यक्तिनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
४) मोक्ष- व्यक्तिनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
या चार पुरुषार्थांपैकी पहिल्या तीन पुरुषार्थांनी आपले समग्र व्यावहारिक
जीवन व्यापलेले आहे आणि अर्थपूर्ण झालेले आहे. अशा व्यावहारिक जीवनाला
सामान्य, जुजबी कोण म्हणेल? ही परिभाषा जर कुणाला मध्ययुगीन किंवा प्रतिगामी
वाटत असेल तर तिच्याऐवजी त्याने खुशाल समाजमनस्कता-वाणिज्यव्यवहारसुरत,
समानता-बंधुता-स्वातंत्र्य वगैर वगैरे परिभाषा योजावी.
लौकिक जीवन
अशा या आपल्या जीवनालाच तत्त्वज्ञानात 'लौकिक जीवन' असे म्हणतात.
या व्यावहारिक ऊर्फ लौकिक जीवनाचे वैशिष्ट्य म्हणजे ते क्रियाप्रवर्तक
असतं. व्यवहारातील, आपल्या मनातील कुठलीही भावना किंवा विचार आपणांस
कर्मप्रवृत्त करीत असतो- मग ते कर्म सूक्ष्म असो, स्थूल असो किंवा कर्मप्रेरणा
आवरण्याचे कर्म असो.
ही कर्मप्रवृत्ती तरी का चेतविली जाते? कारण व्यवहारात आपले मन सतत
काही तरी मागत असते, नाकारत असते. हवे-नकोच्या या प्रक्रियेलाच
'प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपता' असे म्हणतात. म्हणूनच लौकिक व्यवहार कर्मरूप,
प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप असतो असे म्हणायचे. घरी बसल्या बसल्याही माणसे का थकतात
ते आता कळले ना? तेव्हा त्यांच्या मनात हवे-नकोची रस्सीखेच चाललेली असते,
त्या ओढाताणीने ते थकतात. ते (म्हणजे आपण सारे) स्कूटर जागच्या जागी सुरू
ठेवून पेट्रोल जाळत असतो. अहो, म्हणून तर म्हणायचं, लौकिक जीवन
सुखदु:खरूप असते. हवे ते मिळाले, नको ते दूरच राहिले की सुख; नको ते गळ्यात
पडले, हवे ते दूर पळाले की दु:ख. हे सुखदु:ख कधी परमाणुएवढे असेल, कधी
परमाणुस्फोटाइतके विराट असेल. साहेब, प्रश्न सुखदु:खाच्या आकाराचा नाही,
प्रकाराचा आहे. ठीक?
कर्मरूपता, हवे-नकोपणा, सुखदु:खमयता असे व्यावहारिक जीवनाला
स्वरूप का येते? आपले मीपण. हे मीपण वाईट नसते हो; आवश्यकच असते,
अनिवार्य असते. असे मीपण आपल्यांत नसेल तर आपली बायको आणि दुसऱ्याची
बायको, अपत्यसंगोपनाची जबाबदारी, व्यावसायिक कर्तव्य यांचा नुसता गोकाला
होऊन जाईल; समाज नावाची वस्तूच शिल्लक राहणार नाही. आपले मीपण इतके
मूल्यवान असते. या मीपणालाच व्यक्तिसंबद्धता असे म्हणतात. व्यक्तिसंबद्धता
बिलकुल हीन नाही. ते लौकिक व्यवहाराचे गंभीर मूल्यच आहे. ऍन रॅंड या विदुषीने
तर 'व्हर्च्यू ऑफ सेल्फिशनेस' असा सिद्धान्तच मांडला आहे. भाविक लोक नेहमी
आपल्याला सांगत असतात, बाबा रे, मन चंचल आहे, ते आवर. त्यामुळे
आपल्याला वाटायला लागते की चंचलता हा मनाचा मोठा रोगच आहे. नाही हो,
चंचलता मुळात मनाची मोठी शक्ती आहे. कशी? चंचलता हा शब्द चुकीचा, चापल्य
हा शब्द बरोबर. 'अचपळ मन माझें नावरे आवरिता' हे रामभक्तीच्या संदर्भात
बरोबरच; पण व्यवहारात मनाचे अचपळपण म्हणजे अतिचपळपण अगदी योग्य.
एकाग्रपणे वाहन चालवितानाही धनराज पिल्लेइतकी, मुंगसाइतकी,
पाऱ्याइतकी चपळता आवश्यक असते. असतेच. विचार करा. या चपळपणाइतके
मीपणही व्यवहारात उचित. चपळपण जसे बहुुखी, बहुरूपी तसेच मीपणही
बहुुखी, बुहुरूपी. त्याचे एक उदाहरण सांगतो : कल्पना चावला. तिच्या
विक्रमाकडे किती वेगवेगळ्या मीपणाने पाहता येते! ती स्त्री- मी पुरुष; ती स्त्री- मी
स्त्री, ती मानव- मी मानव अशा अनेकानेक आकारांनी प्रत्येकाचा 'मी' प्रकटत
असतो. या व्यक्तिसंबद्धतुेळेच तर या विेशाचा आपल्या प्रत्येकाचा अनुभव अनन्य
असतो. दुसरे उदहारण सांगतो :
रस्त्यात अपघात होतो. एक माणूस 'मला काय त्याचे' असे म्हणून पुढे
सटकतो. दुसरा केवळ तटस्थ कुतूहलाने निरीक्षण करतो. तिसरा म्हणतो, 'देवा, तू
किती दयाळू आहेस! माझ्या शत्रूचा नाश इतका तडकाफडकी होईल असे मला
वाटले नव्हते!' आणि त्या जखमी देहाचा आप्त बिचारा टाहो फोडून रडत असतो.
व्यक्तिसंबद्धतुेळे एकाच घटनेचे असे विभिन्न अन्वयार्थ लावले जातात.
म्हणूनच असे म्हणतात, की आप-पर-तटस्थ या तीन भूमिकांवरून आपण
व्यावहारिक जीवनाचा अन्वयार्थ लावीत असतो.
आता पाहा. नाटकाचा असा अन्वयार्थ आपण लावतो का? अगदी नटीचा
नवरा प्रेक्षकांत बसला आहे असे समजा. समोर नायक त्या नटीला जवळ ओढतो-
बायको म्हणून. हा प्रेक्षक नवरा त्यावर आक्षेप घेतो का? त्याने घ्यावा का?
स्त्रीप्रेक्षकाने स्त्रीपात्रांची बाजू घ्यावी, पुरुषप्रेक्षकांनी पुरुषपात्रांची असे व्हावे का?
असे होत असेल तर ते गैर, असेच आपण म्हणतो. लौकिक जीवनातील सर्व घटक
साहित्यात अवतीर्ण होत असतात म्हणून तर साहित्याला जीवनाची अनुकृती,
जीवनाचे प्रतिबिंब, लोकसंसिद्ध, लोकयात्रानुगामी म्हणतात. फरक असतो तो
अनुभव घेण्याच्या प्रक्रियेत. लौकिक जीवनाचा अन्वय आपण व्यक्तिसंबंध भूमिेने
लावीत असतो- ते योग्यच असते; उलट, नाट्यानुभव लौकिकरूप असूनही त्याचा
अन्वय मात्र आपण आप-पर-तटस्थ भूमिका सोडून साधत असतो. असे जेव्हा
आपण करीत नाही तेव्हा आपण नाट्यानुभव घेत नसतो, वास्तवानुभवच घेत
असतो- इतका की कृष्ण ऑथेल्लोने गौर डेस्डिमोनाचा गळा दाबला म्हणून एखादा
गौर पुरुष ऑथेल्लोला गोळ्याही घालतो. त्या बिचाऱ्या श्वेत शिपायाला का हसायचे?
सूक्ष्मपणे अनेकदा आपणही असा कलेचा गळा दाबत असतो. साहित्यकृतीशी
समरस न होणे, कल्पकता नसणे, स्वत:च्याच खासगी सुखदु:खात चूर होणे ही
रसविघ्ने सर्वपरिचितच आहेत.
कलावस्तूचा आस्वाद घेताना रसिकाचा तिच्यात अनुप्रवेश झाला पाहिजे-
तटस्थ न राहता तादात्म्याने, मनाने त्याने कलाकृतीत प्रवेश केला पाहिजे. अर्थात
आपले मीपण सोडून. ऑपरेशन थिएटरमध्ये आणि देवळामध्ये शिरताना आपण
आपली पादत्राणे बाहेर काढून ठेवतो- ती कितीही मूल्यवान, स्वच्छ आणि प्रिय
आणि उपयुक्त असली तरी. मीपण असे उतरवून ठेवले की काय उरते? रितेपण?
पोकळी? नाही हो. खोळबुंथी गळून पडली की स्वयंभू मूर्ती साक्षात होते. अहो, हवे-
नको, सुख-दु:ख, मी-तू हे सारे आपल्या मूळ कंदावरचे लेप आहेत. टरफले. साल.
वालिफ. ती आतली मूर्ती निखळ मानवी असते. जात, वंश, धर्म, प्रांत, लिंग, भाषा
यापासून मुक्त- निखळ मानवी. मानवतेच्या आदिम गंधाने घमघमलेली. धर्म-अर्थ-
काम-मोक्ष किंवा विेशवात्सल्य-मानुषता-स्वातंत्र्य या भूीतून वृक्षासारखी
उगवलेली. जेव्हा या मूल्यांना वस्त्रहरण, स्त्रीहरण पोषक असते तेव्हा तिथे साहित्यात
नायक-नायिका प्रकटतात; वस्त्रहरण, स्त्रीहरण या मूल्यांना बाधक असते तेव्हा तिथे
खलनायक-खलनायिका प्रकटतात. यालाच साहित्यकृतीची मूल्यगर्भता असे
म्हणतात. मूल्यगर्भता आणि स्वसंबद्धता या दोन गोष्टी अगदी भिन्न आहेत.
मूल्यगर्भता सर्वव्यापी आहे तर स्वसंबद्धता व्यक्तिपरत्वे भिन्न आहे. मूल्यगर्भता
सर्वव्यापी असल्यामुळेच श्रेष्ठ कलाकृतीचा आस्वाद कुठल्याही काळात कुणालाही
घेता येतो. या स्वमुक्त भूमिकेलाच लौकिकभिन्न भूमिका असे म्हणतात. साहित्याचा
आस्वाद घेताना आपण लौकिकाचा लौकिकभिन्न भूमिकेवरून आस्वाद घेत असतो.
प्रत्यभिज्ञादर्शन
लौकिक भूमिका सोडून लौकिकभिन्न भूमिकेवर जायचेच कशाला, असा
आपल्याला प्रश्न पडतो. या प्रश्नाचे उत्तर स्पष्ट आहे. जिला आपण लौकिकभिन्न
भूमिका म्हणतो, जी जात-वंश-धर्म-प्रांत-लिंग यांच्यापासून मुक्त आहे तीच आपली
मूळ अवस्था आहे. स्वातंत्र्य-सर्जन-चारुता हे त्या मूळ अवस्थेचे स्वरूप आहे. मूळ
अवस्थेकडे जायला कष्ट पडत नाहीत, तिच्यापासून दूर गेलं की स्वातंत्र्य-सर्जनचारुता
हे सारे संपून हवे-नको, सुखदु:ख, मी-तू, संघर्ष यांचा प्रांत सुरू होतो. कष्ट
तिथे असतात.
एखादी पोर माहेरी जाते तेव्हा किती उल्हसित होते? आपल्या गावाचे दिवे
दिसले तरी प्रवासी हर्षित होतो. तसेच. आपल्या मूल्यगर्भ मूलस्वरूपाकडे जाणे
नेहमीच सहज, सोपे आणि आनंददायी असते. सोप्या गोष्टी आपण किती कठीण
करून ठेवल्या आहेत! एक प्रवासी प्रवासाच्या सुरुवातीला चांगला माणसासारखा
बसला होता. खुर्चीच्या पाठीला पाठ लावून, खुर्चीच्या हातावर हात ठेवून. हळूहळू
तो प्रवासी घसरत जातो, हातपाय पसरत जातो. शेजारची बाई म्हणते, ''भाईसाब,
जरा ठीकसे बैठिये।'' ती काही वेगळं सांगत नसते. त्याला त्याच्या मूळ बैठकीची,
माणूसपणाची आठवण करून देत असते! पटलं?
या विचारसरणीलाच तात्त्विक पातळीवर 'प्रत्यभिज्ञादर्शन' असे म्हणतात.
अभिनवगुप्ताचार्यांचे साहित्यशास्त्र काय किंवा श्रीज्ञानेशरांचे अमृतानुभव काय,
यांचा आधार हे प्रत्यभिज्ञादर्शनच होय. माझ्याही टिचभर आयुष्याचा तोच आधार
आहे; माझ्या समीक्षेचाही.
साहित्याची निर्मिती, साहित्यकृतीचे अस्तित्व आणि आस्वाद या तीन
वेगळ्या प्रक्रिया नसून ती एक सलग, एकजातीय प्रक्रिया आहे. या प्रक्रियेत
कलावंताचे मन, कलाकृतीची भाषा आणि रसिकाचे मन विशिष्टापासून मुक्त होऊन
आपल्या मूलसत्त्वात प्रकटत असते. हा त्यांचा उन्नत पुनर्जन्मच असतो. जे जीव या
उन्नत अवस्थेत अखंड वावरतात त्यांना जीवनमुक्त असे म्हणतात. हे जीवनमुक्त
जीवन परमेशराचे नाट्य आहे असे समजून त्याचा आस्वाद घेतात. हे जीवनमुक्त
कधीही सुतकी आणि जीवनाला पाठमोरे नसतात. उलट, जीवनव्यवहारात अनुप्रवेश
करून ते जीवनानंद अनुभवीत असतात. उलट, जे नाट्यगृहात, साहित्यक्षेत्रात फक्त
आस्वादप्रसंगी जीवनमुक्त होतात त्यांना आपण रसिक म्हणतो. हा वाङ्मयीन
पुनर्जन्माचा सिद्धान्त साहित्याला बंदिस्त करीत नाही. पूर्वी अध्यात्मशास्त्रीय प्रक्रिया
आणि परिभाषा जशीच्या तशी साहित्याला लावून साहित्यशास्त्राचे
आध्यात्मिकीकरण करण्यात आले आणि त्यालाच नवे साहित्यशास्त्र म्हटले गेले.
वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा सिद्धान्त सांगणारा नवअलौकिकतावाद अशी गल्लत करीत
नाही. प्रत्याभिज्ञादर्शनाची परिभाषा आणि प्रक्रिया समजावून घेऊन तिचा
साहित्यसापेक्षतेने विकास कसा करायचा हा विवेक नवअलौकिकतावाद जाणतो.
असाच साहित्यविवेक विभिन्न क्षेत्रांतील महापुरुषांचे अर्थशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय,
मानसशास्त्रीय विचार साहित्याला लावताना आपण केला पाहिजे- स्त्रीवाद,
विद्रोहवाद, अस्तित्ववाद, जनवाद, गांधीवाद, मार्क्सवाद यांचा विकास
साहित्यसापेक्षतेने व्हावयास हवा आहे.
महापुरुषांची मांदियाळी
कार्ल मार्क्स, सिग्मंड फ्रॉइड, महात्मा फुले, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर
सावरकर, भारतरत्न बाबासाहेब आंबेडकर या महानवांन अद्वितीय विचारसरणी,
जीवनसरणी मानवजातीला बहाल केली आहे. त्यांचे अपरंपार ण आपल्यावर
आहे. त्यांच्यापासून प्रेरणा घेऊन आधुनिक मराठीमध्ये अनेक अत्यंत प्रभावी
साहित्यप्रवाह निर्माण झाले आहेत. त्यामुळे आधुनिक मराठी साहित्य समृद्ध झाले
आहे. यापुढेही ते अधिकाधिक समृद्ध होणार आहे यात शंका नाही.
हे भविष्यकालीन मराठी साहित्य कसे असेल? उच्चतम अध्यात्म आणि
सूक्ष्मतम विज्ञान यांच्या संयोगातून ते उत्क्रांत होईल असे वाटते. उद्याचे मराठी
साहित्य त्यासाठी कदाचित अमृतानुभव (श्री ज्ञानेश्वर) आणि सापेक्षतावाद
(आइनस्टाइन) यांची मदत घेईल. मराठी विज्ञानकथाच नव्हे, एकूणच मराठी
साहित्य हिमतवंतीच्या सरोवरापाशी जाऊन पोहोचेल असे वाटते.
अध्यात्म आणि विज्ञान यांचे तत्त्व एकरूप झाले तरी त्यांची निर्मितिप्रक्रिया
आणि त्यांचे बाह्यांग कधीही एकरूप होऊ शकत नाही हे लक्षात ठेवले पाहिजे; कारण
विज्ञान कार्यकारण-विश्लेषण-वर्गीकरण- नामकरण या ज्ञानमार्गाने जात असते.
अभ्यासविषयाचे जितके सूक्ष्म विच्छेदन करू तितके त्या वस्तूचे आपले आकलन
यथार्थ होत जाते, अशी विज्ञानाची भूमिका आहे. त्यासाठीच ते समीकरणे आणि
आकारिक तर्कशास्त्र यांचा आधार घेत असते. ती एक अत्यंत सूक्ष्म आणि तीव्र
ज्ञानप्रक्रिया आहे, तर्कप्रक्रिया आहे. अशा प्रक्रियेतूनच आपण सत्यापर्यंत पोचतो,
अशी विज्ञानाची भूमिका आहे.
या तर्कप्रक्रियेशी समांतर पण कोटिश: भिन्न अशीही एक प्रक्रिया आहे जिला
'प्रातिभ आकलन' अशी संज्ञा आहे. महान कलावंतापाशी जीवनाचे असे प्रातिभ
आकलन असते. हे प्रातिभ आकलन इतर अनेक घटकांसह तार्किक प्रक्रियासुद्धा एक
घटक म्हणून स्वीकारत असते.
प्रातिभ आकलन कधीही अभ्यासविषयाचे पृथक्करण करीत नसते. ते
विश्लेषणाने सूक्ष्माकडे जात नसते तर व्यूहात्मकतेने विराटाकडे जात असतेसाक
ल्याकडे जात असते. अशा प्रातिभ आकलनातून जी निर्मिती होते ती केंद्रपूर्ण
व्यूहात्मक असते. तिचे आकलनही साकल्याने करायचे असते, घटकश: नाही.
तिचा प्रत्ययही क्रमबद्ध नसतो तर अक्रम असतो, साक्षात्कारासारखा असतो,
कालनिरपेक्ष असतो. कलाकृती लौकिक कालतत्त्वातून मुक्त होऊन स्वत:चे स्वतंत्र
कालतत्त्व निर्माण करीत असते. या स्वतंत्र कालतत्त्वातूनच लयतत्त्व आणि
चैतन्यपूर्ण व्यूह निर्माण होत असतात; त्यातूनच कलाकृतीला सौंदर्य प्राप्त होत
असते, असे नवअलौकिकतावाद मानतो.
नवअलौकिकतावाद
भारतीय साहित्यशास्त्रातील अलौकिकतावाद आणि पाश्चात्त्य
सौंदर्यशास्त्रातील सौंदर्यवाद यांचे एकीकरण आणि उन्नयन व वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा
सिद्धांत नवअलौकिकतावाद अशा तऱ्हेने सिद्ध करू पाहतो. भविष्यकाळात या
वादाचा अधिकाधिक विकास होऊ शकेल.
व्यूह, समग्रता यांचे वर्णन भाषेद्वारे करण्याचा प्रयत्न केला की व्यूहात्मकता,
सकलता भंगते. त्यावर इलाज म्हणून धर्मक्षेत्रात चिन्हे-प्रतीके-विधी यांचे उपयोजन
केले जाते. वरवर पाहता कुंभ-पद्म-स्वस्तिक ही चिन्हे किंवा अग्नी प्रज्वलित करणेसप्तपदी-मम
म्हणणे इ. विधी जुजबी वा निरर्थक वाटतात; परंतु समाजाचे प्रातिभ
आकलन त्यातून प्रकटते, अवधान ठेवले की त्यांचा प्रतीकात्मक आशय आपणांस
चकित करतो. प्रातिभ आशय प्रतिभाशक्तीनेच ग्रहण करावयाचा असतो हे काय
सांगावयास हवे? साहित्यकृती हीदेखील प्रातिभ निर्मिती असते. तिच्यात शब्दवाक्य
े-विधाने हे सारे काही असते. त्यामुळे साहित्यकृती सलग आशयाचे विभाजन,
विश्लेषण करीत आहे असे वाटते. तसे समजून जो वाचक वाचन करतो, जो समीक्षक
समीक्षा लिहितो त्याच्या हाती वाङ्मयकृतीची समग्रता कधीच येत नाही. असा
माणूस जंगलात जाऊन फक्त झाडे मोजू शकतो. अहो, वनातील वृक्षांची काटेकोर
आणि काटेतोल गणना केल्याने काय अरण्याचा प्रत्यय येतो? त्रिकोणाच्या तीन रेषा
पुन:पुन्हा मोजल्याने काय त्रिकोण कळतो? फार तर तीन रेषा कळतील- नव्हे, एकच
रेषा तीनदा कळेल. त्रिकोण काय, अरण्य काय- खरे म्हणजे कुठलीही वस्तू काय ही
एक पूर्णता असते. त्या पूर्णतेचा प्रत्यय क्रमश: घ्यायचा नसतो; तिचा झटितीप्रत्यय
आला पाहिजे. तो टप्प्याटप्प्याने येतो असे जेव्हा वाटते तेव्हाही ते टप्पेही
व्यावहारिक कालसापेक्ष टप्पे नसतात; कलाकृतीने निर्माण केलेल्या कालाच्या
सापेक्षतेने ते उद्भवत असतात. त्यालाच 'कलाकृतीचा सान्निध्यगुण' असे म्हणतात.
साधे उदाहरण घ्या : ''रामा गावाला गेला'' असे म्हणून आपण थांबलो आणि
विलंबाने ''नाही'' असे म्हटले तर काय होईल? वाक्यभंग. यालाच सान्निध्यगुणाचा
अभाव म्हणतात. साहित्यकृतीमध्ये अविरल सान्निध्यगुण असावा लागतो असे
म्हणतात त्याचाही बोध आता होईल. साहित्यकृतीमध्ये सर्ग-पर्व-अध्याय-प्रकरणेप्रवेश-
अंक-चरण-कडवी इ. टप्पे असतात; परंतु त्यामुळे असान्निध्य हा दोष
निर्माण होत नाही. कारण ते कलाकृतिसापेक्ष काळाचाच आविष्कार करीत असतात.
त्यांचा व्यावहारिक काळाशी संबंध नसतो. हे जरा कठीण वाटते ना? नाही. याचा
बोध विचाराने नव्हे प्रतीतीने होईल. सौंदर्यशास्त्र-साहित्यशास्त्र-समीक्षा समजायला
प्रतीती आवश्यक असते, ही शास्त्रे प्रतीतिनिष्ठ असतात असे का म्हणतात ते आता
कळेल. ज्या समाजात साहित्यप्रतीती क्षीण असते, तिथे समीक्षाव्यवहारही उपेक्षित
राहावा यात नवल कसले?
महाराष्ट्र आणि बृहन्महाराष्ट्र
महाराष्ट्र शूरांचा देश आहे, महाराष्ट्र विचारवंतांचा देश आहे.
महाराष्ट्र जो सर्व राष्ट्रांसि राजे।
जयाच्या भयें व्यापिले लोक लाजें।।
असे कलाकवी मुक्तेशराने महटलेच आहे. रामदेवराय यादव-शिवाजी महाराज,
बाजीराव-राणी लक्ष्मीबाई, मुकुंदराज-रामदासस्वामी, आगरकर-र. धों. कर्वे ही
नक्षत्रपुंजांची मालिका किती मोठी आहे.
महाराष्ट्र हा संतमहंतांचा देश आहे. श्रीचक्रधरस्वामी-नामदेव महाराज,
एकनाथ महाराज-तुकाराम महाराज, गाडगे महाराज-तुकडोजी महाराज ही
संतमहात्म्यांची पवित्र नामे सर्वज्ञात आहेत. या महामानवांचे कार्य केवळ अध्यात्म,
धर्म, समाज अशा एकेका क्षेत्रापुरते मर्यादित नाही, ते सर्वव्यापी आहे. त्यांनीच
मराठी संस्कृतीला आकार आणि आधार दिला आहे.
चारशे व दीडशे वर्षांच्या परकीय राजवटीने जी मराठी संस्कृती आणि मराठी
भाषा नामशेष झाली नाही ती काय एलपीजी ऍटॅकने नष्ट होईल? उदारीकरण
(लिबरलायझेशन), खासगीकरण (प्रायव्हेटायझेशन), जागतिकीकरण
(ग्लोबलायझेशन). या आघातामुळे भाषिक आणि सांस्कृतिक बदल होतील पण
भाषा आणि संस्कृती समूळ नष्ट होणार नाहीत. संस्कृती, समाज, भाषा, बाह्य
आक्रमणाने नष्ट होत नसतात. त्या त्यांच्यांतील आंतरिक विसंवादाने उद्ध्वस्त
होतात. सोलझेनित्सिन या लेखकाने म्हटलेच आहे, जो समाज मनातले मनात ठेवतो
आणि जनात अगदी त्याच्या विरुद्ध बोलतो त्याची आत्मशक्ती क्षीण होत जाते; तो
समाज आतून पोखरला जातो आणि एक दिवस कोसळतो. मित्रांनो, यालाच
वाङ्मयीन आत्मनिष्ठेचा सामाजिक आविष्कार असे म्हणतात. आपल्या समाजात
अजून तरी पुरेशी सामाजिक आत्मनिष्ठा आहे. तिच्या बळावरच मराठी
भाषासाहित्य-संस्कृती टिकून राहणार आहे.
महाराष्ट्रातला सामान्य माणूस असामान्य आहे.
महापुरुष मार्गदर्शन करतात, पण पावले तर सामान्य माणसालाच उचलायची
असतात. ज्ञानेश्वर-नामदेव, नामदेव-त्यांची प्रभावळ, शिवबा आणि मावळे,
तुकोबा आणि वारकरी, रामदास आणि धारकरी, लोकमान्य आणि तेलीतांबोळी,
महात्माजी आणि सत्याग्रही, सावरकर आणि क्रांतिकारी- या महावृक्षाची प्रत्येक
डहाळ अशी जीवनदायी फळांनी लगडलेली आहे.
अहो, सामान्य माणूस अल्पसंतुष्ट असतो. श्रीनिवास विनायक म्हणतात
त्याप्रमाणे त्याला गोप-गोपी आणि वानर-वानरी होण्यातच धन्यता वाटते :
तुम्ही होता रामराजा।
आम्ही वानरांच्या फौजा।।
तुम्ही होता गोकुळीं।
आम्ही गोपाळांचे मेळीं।।
हा सामान्य माणूस आपली दैवते अचूक ओळखतो. भक्तिशक्तीच्या या दोन
नेत्रांनीच तर मराठी माणूस महाराष्ट्राची सरहद्द उल्लंघून महाराष्ट्राबाहेर स्थिरावला. त्या
परिसरालाच आपण बृहन्महाराष्ट्र असे म्हणतो. आजही दिल्ली, कोलकता, बनारस,
हैदराबाद, वडोदरा इ. शहरांध्ये मराठी सारस्वताची एकनिष्ठ उपासना करणारे
अनेक सारस्वत आहेत. मराठी साहित्यसंस्कृतीच्या सरहद्दीचे ते शिपाई आहेत.
देशाच्या सरहद्दी सुरक्षित ठेवल्या तरच देश सुरक्षित राहतो; तद्वत् साहित्यसंस्कृतीच्या
सीमांचे रक्षण केले तरच राज्य सुरक्षित राहते. आपले जे सरहद्दीचे शिलेदार मराठी
भाषेचे, मराठी साहित्याचे संगोपन करताहेत त्यांना आपण वेळोवेळी कुमक पुरवली
पाहिजे, त्यांना वेळोवेळी सन्मानचक्र बहाल केले पाहिजे. डॉ. निशिकांत मिरजकर
(दिल्ली), प्रा. वीणा आलासे (कोलकता), डॉ. सुरेश भृगुवार (वारासणी), प्रो. द.
पं. जोशी (हैदराबाद), डॉ. सुषमा करोगल (वडोदरा), श्रीराम कामत (गोवा) ही
नावे केवळ वानगीदाखल. याशिवाय पत्रकारिता, शिक्षण इ. क्षेत्रांत काम करणारी
अनेक गुणवंत माणसे बृहन्महाराष्ट्रात आहेत. अशा या गुणवान प्रदेशातील
गुणवंतांकडे आपण किती लक्ष देतो? नवभारत मासिकाच्या फेब्रुवारी २०१०च्या
अंकात डॉ. सुरेश भृगुवार यांनी या संदर्भात लेख लिहिला आहे. त्यात ते म्हणतात :
''मराठी भाषा व साहित्य यांची सेवा करणारी व्यक्ती ही महाराष्ट्रातील की
बृहन्महाराष्ट्रातील असा विचार करणेच उचित नव्हे; आणि असा विचार करायचा
झालाच तर बृहन्महाराष्ट्रीय व्यक्तीचे कौतुक अधिकच व्हायला हवे; कारण ती
प्रतिकूल परिस्थितीत आपले कार्य करीत असते... काशी हिंदू विेशविद्यालयात
मराठीबरोबरच तमिळ, तेलगू, कन्नड, नेपाळी याही भाषा शिकविल्या जातात. या
भाषांच्या विकासासाठी सुारे दहा वर्षांपूर्वी तामिळनाडू, आंध्र व कर्नाटक
सरकारांनी पाच-पाच लाख रुपयांची अनुदाने या विद्यापीठांना देऊन त्या रकमांच्या
व्याजांतून अध्यासन निर्माण करून प्रोफेसरचे पद व पीएच.डी. करण्यासाठी दोन
विद्यार्थ्यांना शिष्यवृत्तीची सोय केली आहे. नेपाळी सरकार स्वखर्चाने एका
लेक्चररची नियुक्ती करीत असते.... साठ वर्षांपासून जेथे मराठीचे अध्यापन
अव्याहतपणे होत आहे अशा काशी हिंदू विेशविद्यालयामधील दृढमूल मराठी
विभागाला आर्थिक आधार देण्याचे औचित्य व औदार्य महाराष्ट्र शासनाने का दाखवू
नये?'' (पृष्ठ क्र. ३०-३१)
डॉ. भृगुवार यांच्या या आवाहनाकडे शासनाने अवश्य लक्ष दिले पाहिजे.
राजकीय, सामाजिक, भौगोलिक अशा अनेक कारणांनी राज्याच्या सीमा
बदलत असतात. १९५६ साली विदर्भ व मराठवाडा हे प्रदेश द्वैभाषिकात समाविष्ट
झाले. मराठवाडा निजामशाहीत वाढला होता, तर नागपूर जुन्या मध्यप्रदेशाची
राजधानी होती. स्वाभाविकच तेथील मराठी संस्कृतीला उर्दू-हिंदीचा सुगंध
लाभलेला. हिंदी सिनो आणि हिंदी मालिका यांच्या प्रभावाने तो गंध आज
पुण्यापर्यंत येऊन पोचला आहे! महाराष्ट्राची ही विविधरूपी संस्कृती आपण
जोपासली पाहिजे. कशी? एक साधे उदाहरण : भाषेचे. विदर्भ-खानदेश-मराठवाडा
येथे 'साबुदाण्याची उसळ' असे म्हणतात, त्याला हसू या नको. अरे, शुभ्र, सात्त्विक
असा तो पदार्थ झाला की त्याला पुणेरी भाषेत म्हणायचे 'साबुदाण्याची खिचडी';
आणि तांबूस, खमग झाला क त्याला म्हणायचे 'साबुदाण्याची उसळ'. काय?
यालाच मी समृद्धी म्हणतो. अशी शब्द-पदार्थ-रीतिरिवाज-सण यांची असंख्य
उदाहरणे आहेत. असे झाले की आपोआप सांस्कृतिक सामंजस्य आणि समन्वय
प्रस्थापित होत जातो.
हेच तर मराठी संस्कृतीचे आणि भारतातील संस्कृतीचे वैशिष्ट्य आहे :
समन्वय आणि सुसंवाद.
बदलत्या तू-प्रहरांशी सुसंवाद साधायला आयुर्वेद आपल्याला शिकवितो.
बदलत्या तू-प्रहरांशी सुसंवाद साधायला आपल्याला भारतीय संगीत
शिकविते.
-आणि अविचल अनादिअनंत तत्त्वाशी एकरूप व्हायला आपल्याला
प्रत्यभिज्ञादर्शन शिकविते.
शासनाचे सांस्कृतिक धारण कसे असावे, याचे उत्तरही येथे सहज हस्तगत
होते: ते बहुसमावेशी, लवचिक व आधुनिक जगाशी सुसंवादी असावे. शासनावर
पक्षीय भूमिकेवरून टीका करणे वेगळे व शासनाची तात्त्विक स्तरावरून चिकित्सा
करणे वेगळे. एकाधिकारशाही- मग ती कोणत्याही रंगाची असो- साहित्यविेशाचे व
साहित्यिकाचे निर्मितिस्वातंत्र्य सीमित करते; उलट, व्यक्तिस्वातंत्र्य व त्याचाच
राजकीय आविष्कार अशी लोकशाहीप्रणाली, साहित्यिकाच्या
अभिव्यक्तिस्वातंत्र्यावर घाला घालीत नाही; आणि अनवधानाने तिने तसा तो
घातलाच तर त्याचा लोकशाही मार्गानेच आपणांस प्रतिकारही करता येतो.
हुकूमशाहीमध्ये त्यासाठी साहित्यिकाला शहीद व्हावे लागते; लोकशाहीच्या
विरोधकांना ते हवेच असते : विरोधकांनी तत्त्वनिष्ठ राहून शहीद व्हावे म्हणजे
आयताच आपला मार्ग निष्कटंक होईल, असा हुकूमशाहीचा कावा असतो- तो
आपण ओळखला पाहिजे व वेळप्रसंगी कृष्णनीती व शिवनीती यांचा अवलंब केला
पाहिजे; श्रीकृष्ण व शिवबा ही अखिल भारतीयांची, अखिल महाराष्ट्राची परम दैवते
आहेतच ना!
अभिव्यक्तिस्वातंत्र्यवादी प्रतिभावंत जाणीवपूर्वक विशिष्ट विचारसरणीस
विरोध करीत असतो; त्यासाठी तो सर्वस्वाचे मोल देण्यासही सिद्ध असतो; बा. सी.
मर्ढेकर, दुर्गाताई भागवत ही अलीकडच्या काळातील अशी उदाहरणे होत; उलट
एखाद्या लेखकाच्या हातून अज्ञानाने, अनवधानाने, साहित्यविषयक चुकीच्या
समजुतीने श्रद्धाभंग झाला तर त्याला अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य न म्हणता 'पावित्र्यविडंबन'
म्हणावयाचे असते. पावित्र्यविडंबन व अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य या दोन संकल्पनांतील
साहित्यशास्त्रीय भेद आता आपण नीट जाणून घेतला पाहिजे.
ज्ञानात्मकता क्षीण होणे व भावनिकता वाढणे हे वैचारिक अराजकाचे लक्षण
होय. ललित वाङ्मयातही ज्ञानात्मकतेला अनन्य स्थान असते- 'एडिपस
रेक्स'पासून 'सोडवण'पर्यंतच्या साहित्यकृतींतील ज्ञानात्मक घटक अव्हेरून कसे
चालेल? संगीतादी कलांच्या माध्यमाइतके साहित्यकलेचे माध्यम तीव्र
नसल्यामुळेच असा ज्ञानात्मक संस्कार साहित्यकला करू शकते, हे न कळल्यामुळे
मराठीतील सौंदर्यशास्त्रीय लेखनात 'लय' गोंधळ झाला आहे!
बरे, सौंदर्य शास्त्रात गोंधळ झाला तो झाला; त्याचा परिणाम ललित
लेखनावरही झाला : ललित साहित्यकृती म्हणजे भावनांची गुठळी असे
साहित्यिकांना- विशेषत: कवींना- वाटू लागले. मग काय, भावना उचंबळली की
लिहा कविता- मग ती भावना क्रांतीची असो, प्रीतीची असो वा नीतीची असो- लिहा
कविता. अरे बाबा, या भावनांचा शोध घेणारी शास्त्रे आहेत त्यांच्याकडे थोडे लक्ष
द्याल की नाही? बर्टोल्ड ब्रेख्तने तर नाट्यकलेत भावनिक प्रत्यय त्याज्य मानून
वैचारिक प्रत्ययाला आणि वैचारिक प्रतिक्रियेलाच महत्त्व दिले आहे; एव्हढ्यानेही
भागत नाही, कविराज. गायक-नर्तक असे म्हणतात का, की आम्हाला घशातून
आवाज काढता येतो, शारीरिक हालचाली करता येतात तर आम्ही आपसूकच
गायक-नर्तक होऊ? नाही. ते प्रशिक्षण घेतात, रियाज करतात; वर्षानुवर्षांच्या
साधनेनंतर आपली कला पेश करतात. कवींनीही अशी शास्त्रसाधना व कलासाधना
केली पाहिजे.
काय सांगू तुम्हाला! आजचा मराठी साहित्यिक आपले प्रज्ञाबळ आणि
प्रतिभाबळच विसरला आहे. अनुभव आला लिहा कथा-कविता. इतिहास-चरित्रपुराण
यातील कथावस्तू घ्या, लिहा त्यावर नाटक-कादंबरी. ललित साहित्याचे नाते
घटितापेक्षा सत्त्वा-तत्त्वाशी अधिक असते; सत्त्वग्रहणासाठी प्रतिभेची,
तत्त्वग्रहणासाठी शास्त्रज्ञानाची गरज असते; नुसते सांस्कृतिक गंड, घोषवाक्ये,
हळुहळुती भाषा, एकेरी रूपके, भळभळती भावना, तार्किक प्रतीके यातून
व्याजसाहित्य जन्मास येते, हे आपण कधी लक्षात घेणार?
इथे दिग्दर्शक, संगीतकार, गायक यांनाही इशारा द्यायला हवा : नाटक,
पटकथा, कविता निवडताना त्यांनी आपली वाङ्मयीन अभिरुची जागृत ठेवली
पाहिजे. हिणकस, पोकळ, अनुकरणात्मक, फॅशनबेल साहित्यकृतींना त्यांनी
दिग्दर्शनकौशल्याने वा गानकौशल्याने लोकप्रिय केल्यास वाङ्मयक्षेत्रात मूल्यभ्र
आणि अभिरुचिभ्र निर्माण होईल- असे होता कामा नये; ललितकला व
साहित्यकला यांच्यांतील समायोजनाकरिता हे भान आवश्यक आहे.
श्री ज्ञानेश्वर-मर्ढेकर-गणेश त्र्यंबक या माझ्या गुरूंनी मला एवढे ज्ञान दिले; ते
ओंजळीत घेऊन समाजपुरुषाच्या चरणी मी अर्पण करीत आहे.
इथे माझ्यासमोर तो समाजपुरुष साक्षात झाला आहे त्याचेच ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ
प्रतिनिधी माझ्या शेजारी स्थानापन्न झाले आहेत. या सर्व मानवाईक मंडळींना व तुम्हां
सर्व प्रिय श्रोतृजनांना मन:पूर्वक प्रणाम करून मी माझे बोलणे पूर्ण करतो.
-डॉ. द. भि. कुलकर्णी
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
८३वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलन, पुणे
डॉ० द० भि० कुलकर्णी यांचे अध्यक्षीय भाषण
शुक्रवार, दिनांक २६ मार्च २०१०
मित्रहो,
पुणं मला नवीन नाही. १९६०पासून १९६४पर्यंत मी कोल्हापुरात होतो.
नामदार गोपाल कृष्ण गोखले कॉलेजमध्ये. तेव्हा आमचं महाविद्यालय पुणे
विद्यापीठाला संलग्न होतं. शैक्षणिक कामकाजासाठी पुण्याला नेहमी यावं लागे.
अहो, आमच्या कोल्हापुरात तेव्हा पीएच.डी.चा कोणी मार्गदर्शकच नव्हता. डॉ०
ल० म० भिंगारे यांच्यात ती पात्रता होती; पण त्यांना मान्यता मिळत नव्हती. त्यांचा
स्वभाव आणि विद्याक्षेत्रातील राजकारण- आणखी काय! मग चला पुण्याला; भेटा
तुळपुळे-जोग-सहस्रबुद्धे यांना. काय सांगू तुम्हाला, कुठे विषय जुळायचा तर
मार्गदर्शकाकडे जागा नसायची; कुठे जागा असायची तर विषय नापसंत. माझी
पत्रिकाच कुठे जुळत नव्हती! जोग-तुळपुळे-सहस्रबुद्धे यांच्याशी संवाद साधण्याचा
आनंद मात्र मनमुराद मिळत होता. शिक्षण-नोकरी-विवाह या सगळ्या संदर्भात
सगळ्या सोयी तेव्हा पुण्यातच. मग सगळीकडून आप्त-मित्र-परिचित-गरजू
स्वाभाविकच पुणेकराकडे ठिय्या ठोकणार. पुणेकर वैतागणार नाहीत तर काय!
त्याला स्वत:चं काही आयुष्य आहे की नाही? आता पुण्याबाहेरची परिस्थिती
बदलली आहे; पुणेकरही बदलले आहेत; हा माझा अनुभव आहे.
नाते पुण्यनगरीशी
महाराष्ट्र साहित्य परिषदेनं मराठी वाङ्मयाच्या इतिहासाचा प्रकल्प हाती
घेतला. त्याची सूत्रं मा० रा० श्री० जोग यांच्याकडे आली. सहसंपादक म्हणून त्यांनी
प्रा० भ० श्री० पंडित, डॉ० ल० म० भिंगारे, डॉ० कृ० भि० कुलकर्णी, द० भि०
कुलकर्णी अशा अनेकांची निवड केली. प्रकल्पाचे सल्लागार होते प्रा० दि० के०
बेडेकर आणि प्रा० गं० बा० सरदार. संपादक मंडळाच्या सतत बैठका व्हायच्या.
बैठका म्हणजे फक्त खाऊ-पिऊ नाही; तर प्रकरणांचे वाचन, चर्चा, सूचना. जोग सर
फार जुतेने पण तरीही शिस्तबद्ध पद्धतीने काम करवून घेत. म्हणून तर अव्वल
इंग्रजी कालखंडावरचा हा चवथा खंड प्रथम प्रकाशित झाला. जोग हास्यविनोदही
करीत. हॉटेलमध्ये चहापाण्यालाच काय, जेवायलाही नेत. माझ्या दृष्टीने जोग सर
माझे एक विद्यापीठच होते. तेव्हा मी नेहमी जंगली महाराज मार्गावरच्या 'भारत
लॉज'मध्ये उतरत असे. तिथेही जोग येत. हॉटेलमधल्या मंडळींना वाटे, प्रा० जोग
माझे सासरेच! इतके ते प्रोदराने वागत. त्यांच्यात नावालाही 'पुणेरीपण' नव्हतं.
विठ्ठलराव घाट्यांनी म्हटलेच आहे, पुणेरीपण नागपूरच्या रामदासपेठेतही असू
शकते! अगदी खरं.
खरं म्हणजे माझे सासरे पुण्यातच होते : सिव्हिल सर्जन डॉ. दादा गोगटे.
शिवरंजनीचे वडील ऍड. मोरूभाऊ गाडगीळ, तिच्या बालपणीच, अपघातात
गेलेले. शिवरंजनीला माया लागली ती मावशीची. 'बाप मरो, मावशी जगो' अशी
तिची स्थिती. या मावशीचे यजमान म्हणजे डॉ. गोगटे. तेव्हाचा माझा स्वभाव काय
सांगावा! शिवरंजनी सोबत असेल तरच मी गोगट्यांकडे जात असे. शिवरंजनीनं
'मनातला झोका' नावाचं लहानसं पुस्तक लिहिलं आहे, त्यात या मावशीचं प्रे
वर्णिलं आहे. कमलमावशीच काय, शिवरंजनीचे डझनभर नातेवाईक पुण्यात.
आत्या, आतेबहिणी, आतेभाऊ, मावश्या, मावसबहिणी, मावसभाऊ. अनेक.
साक्षात धनंजयराव गाडगीळ तिचे चुलते. मोरूभाऊ आणि धनंजयराव एकत्र कुटुंबात
वाढलेले, त्यामुळे नातं घट्ट. ते अगदी सुलभाताई ब्रह्मे, माधवराव गाडगीळ
यांच्यापर्यंत तितकेच घट्ट. पुणे नगरीचं एक सुसंस्कृत, शालीन रूप मला गोगटे-
गाडगीळ-सोवनी या परिवारानं सतत दाखवलं आहे. पुण्यात त्या अर्थाने पुणेरीपण
मला आजतागायत आढळलेलं नाही. अहो, इथले मतदारसुद्धा माझ्याशी सौजन्यानं
वागले म्हणजे बोला! त्यांना मी म्हटलंच, तुम्ही सगुणोपासक! मतपेटीवर तुम्ही
मतपत्रिकेची फुलं वाहिलीत, मला मत दिलंत. धन्यवाद! पण तुच्या या
सगुणोपासनोगे सुसंस्कृत पुणेरी मनाची निर्गुणोपासना होती. गुणिजन सर्वत्र
आढळतात, गुणग्राहक मात्र तसे दुर्मिळच. पुण्यनगरीचं वैशिष्ट्य हे, की इथे
गुणिजनांप्रमाणेच गुणग्राहक जनांचेही अपार पीक आहे. परंपरासंपन्न, संस्कारसंपन्न
समाजातच असं पीक बहरत असतं. समाजाच्या या सामूहिक अबोध मनावर माझा
फार विेशास आहे. भारतातील केवळ सात राज्यांतील मतदारांनीच मला अध्यक्षपद
प्रदान केलेलं नाही, तर सात राज्यांतील सामूहिक अबोध मनाने ते मला बहाल केलेलं
आहे. त्यांचे आभार तरी कोणत्या शब्दांत मानू?
१९९७ साली नागपूर येथे लतादीदींनी पंचवीस हजार प्रेक्षकांसमोर पन्नास
हजारांचा पुरस्कार दिला; आणि तोही कोणासोबत? तर दिलीपकुमार, गंगूबाई
हनगळ आणि किरण बेदी यांच्याबरोबर. तेव्हा आनंद झाला तो एका कलावंताने एका
समीक्षकाचा गौरव केला म्हणून; आणि आज? संपूर्ण मराठी समाज सत्कार करतोय
म्हणून.
१८७८ साली न्यायमूर्ती महादेव गोविंद रानडे यांनी साहित्य संमेलनाचे
बीजारोपण केले. या पुण्यनगरीत. तेव्हा या संमेलनाचे नाव होते 'ग्रंथकार संमेलन'.
गंत ही, की तेव्हा न्यायमूर्तींच्या नावावर एकही ग्रंथ नव्हता! पुढे या ग्रंथकार
संमेलनाला 'साहित्यिक संमेलना'चे रूप आले. १९५६पासून महाराष्ट्राच्या
अस्मितेला वेगळीच धार आली आणि सगळा मराठी समाजच हे संमेलन आपले मानू
लागला. आता हे साहित्य संमेलन निव्वळ ग्रंथकार संमेलन किंवा केवळ साहित्यिक
संमेलन राहिले नाही. ते झाले आहे मराठी समाजाचे साहित्य संमेलन- नव्हे,
महाराष्ट्राचा वाङ्मयीन सण, महाराष्ट्राचा साहित्यिक कुळधर्म, महाराष्ट्राची
सांस्कृतिक अस्मिता. संमेलनास याने यावे की नाही हा प्रश्नच नाही, त्याने साह्य
करावे की नाही हा प्रश्नच नाही. हे संमेलन सर्व मराठी माणसांचे आहे- मग तो
नोकरदार असो, कलाकार असो, आमदार असो वा नामदार असो... काय? अखिल
भारतीय मराठी साहित्य संमेलन हा महाराष्ट्राचा मानबिंदू आहे. भारतातील इतर
कोणत्याही प्रांतात, कोणत्याही भाषेत असे भव्य साहित्य संमेलन भरत नाही. अशा
संमेलनाला चेष्टेनेसुद्धा उरूस म्हणणे अनुचित ठरेल. नवसे, हौसे आणि गवसे या
शब्दांचा अर्थ तरी आपल्याला कळतो का? रवींद्र विनायक जोशी यांनी, तात्या
माडगूळकरांचा हवाला देत, आपल्या 'माणदेशी माणूस' या लेखात याचा खुलासा
केलाच आहे : ग्रामीण समाजाला प्रिय असलेल्या जत्रेशी हे शब्द संबंधित आहेत.
नवसे म्हणजे नवस फेडायला आलेले; नवशिके नव्हे. आपण सारे वाङ्मयीन नवस
फेडायलाच तर इथे आलो आहोत. साहित्यिक निर्मितीचा नवस फेडायला. रसिक
आस्वादाचा नवस फेडायला. संपादक घडवण्याचा नवस फेडायला. संशोधक
शोधनाचा नवस फेडायला. प्रकाशक काळोखातल्या कलाकृती उजेडात आणण्याचा
नवस फेडायला. आणि ग्रंथपाल? ग्रंथधन जतन करण्याचा, जनतेपर्यंत पोचवण्याचा
नवस फेडायला. आणि पत्रकार? साहित्याचा शब्द समाजाच्या तळागाळापर्यंत
पोचवण्याचा.
-आणि हौसे? साहित्याच्या क्षेत्रात व्यावसायिक लेखक, व्यावसायिक
पत्रकार, पगारदार प्राध्यापक असे अनेक साहित्यिक असतात; त्यांना आपण हौसे
कसे म्हणणार? साहित्य हे त्यांच्या उपजीविकेचे साधन असते; एका अर्थाने ते
प्रशिक्षित वाचक व प्रशिक्षित लेखकही असतात. इतर क्षेत्रांध्ये प्रशिक्षणाला फार
महत्त्व असते. वाङ्मयाच्या क्षेत्रातही प्रशिक्षित अभिरुचीला आणि प्रशिक्षित
लेखनविद्येला महत्त्च आहेच; पण, वाचनक्षेत्रात वाचक म्हणून आर्ष असण्यात
वेगळीच गोडी असते. असा वाचक कर्तव्य म्हणून, काम म्हणून, प्रदर्शन म्हणून
वाचत नसतो; तो स्वेच्छेने, स्वयंप्रेरणेने, स्वसुखार्थ वाचत असतो. मी म्हणतो,
प्रशिक्षित वाचकानेही अधूनमधून असे आर्ष वाचक व्हावे; त्याचा आनंद फार मोठा
आहे. प्रे करताना काय वात्स्यायनाकडे पाहायचे असते? विचारा चारुदत्तवस
ंतसेनेला. जन्मभर प्राध्यापकी केली, आवडीआवडीने वाङ्मय शिकवले;
वाङ्मयच काय, साहित्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र यांचेही धडे दिले; पण शास्त्र, सिद्धांत,
विद्वत्ता यांच्या आधी महत्त्व आहे मुक्त आस्वादाला. माउली असे नाही म्हणत की
माझा ग्रंथ समजून घ्या; ती म्हणते, माझ्या ग्रंथाचा आस्वाद घ्या. माउली असे नाही
म्हणत, की माझ्या ग्रंथाच्या आस्वादासाठी तुच्यापाशी पांडित्य असलं पाहिजे
म्हणून. मग ज्ञानराज काय म्हणतात? हळुवारपण, अतिहळुवारपण. साहित्याचा
'आस्वाद' घ्यायचा हे तर झालेच, पण तो आस्वादही आंतरिक हळुवारपणे घ्यायचा
असतो. कसा? ज्ञानेशरांची ती ओवी तर सगळ्यांनाच मुखोद्गत आहे :
जैसें शारदेचिये चंद्रकळें।
माजी अमृतकण कोंवळे।
ते वेंचिती मनें मौआळें ।
चकोरतलगें।।
ही ओवी तर आपल्याला कळते; पण तिचा आस्वाद हळुवारपणे घेतला, की
घड्याळात किती वाजले आहेत हे तर कळतेच; शिवाय आतली यंत्रकिमयाही दिसू
लागते! म्हणजे काय?
आस्वाद आणि निर्मिती
शरदतू. कुठलाही तू नव्हे. पावसाळ्यात मेघांनी ठेंगणं झालेलं आभाळ
आता उंच गेलं आहे. निरभ्र. अशा तूतील पौर्णिा नव्हे, जरा अलीकडची तिथी.
आता 'चंद्रकळा' या शब्दातली मंत्रकिमया दिसायला लागली ना? दर्शनी अर्थातून
माउली आत आत, वर वर अशी नवनवी आशयलेणी खोदीत जातात की आपण
स्तंभितच व्हावे. फक्क चादणं नाही, मंद चांदणं. संपूर्ण चांदणं नाही, फक्त त्यातील
अमृत. संपूर्ण अमृतही नाही, त्यातील निवडक कण- कोवळे कोवळे कण. तेही
सावडायचे नाही, वेचायचे. चिमटीने? नाही. चोचीने. चोचीने? नाही. मनाने. अहो,
जगात अशी एकच कला आहे की जी इंद्रियाने आस्वादायची नसते, मनाने
आस्वादायची असते. संगीत, नृत्य, शिल्प, चित्र या इंद्रियगोचर कला आहेत.
साहित्यकला ही अशी एकुलती एक कला आहे की जी मानसगोचर कला आहे. अरे
बाबा, कविता डोळ्यांनी वाचता येते, कानांनी ऐकता येते, दृष्टिहीनाला स्पर्शलिपीनेही
समजते... काय? कुठल्याही मार्गाने का होईना, ती मनापर्यंत पोचली पाहिजे. असे
आपण संगीताबद्दल म्हणू शकतो, की मी कानाने संगीत न ऐकता एकदम मनाने
त्याचा आस्वाद घेईन? अशक्य. साहित्यक्षेत्रात मनाच्या हळुवारपणाला का महत्त्व
आहे ते आता कळेल. साहित्याचा रसिक हा केवळ आस्वादक नसतो, तर कवीची
कविता आपल्या मनात मुरवून तो तिची नवनिर्मिती करीत असतो. साहित्याचा रसिक
निर्माताच असतो. आस्वादासाठी हवे असते आर्ष, म्हणजे अनघड मन.
नवनिर्मितीसाठी हवे असते सुघड मन. साहित्यकला रसिकाकडून जेवढी अपेक्षा
करते तेवढी अपेक्षा अन्य कुठलीच कला रसिकाकडून करीत नसते. उडू न
शकणाऱ्या, तळाशीच गमन करू शकणाऱ्या चकोरतलगाची कोवळीक
साहित्यरसिकाकडून अपेक्षित असते.
तेयापरीं श्रोतां ।
अनुभवावी हे कथा ।
अति हळुवारपण चित्ता ।
आणुनियां।।
-असे माउली काय उगाच म्हणते? असे एकदाच नाही, पुन:पुन्हा. ज्ञानराज आपणांस
जागे करीत असतात. ते 'अवधान द्या' असे पुन:पुन्हा म्हणतात तेही काय उगाच?
'हौसे' या शब्दाचा अर्थ 'ज्याच्यापाशी वाङ्मयीन प्रशिक्षण नसेल पण हुरूप आणि
हळुवारपण असेल असा वाचक' असा घेणेच उचित. आणि गवसे? जत्रेतला त्याचा
अर्थ काय असेल तो असो. इथे आपण सारेच आपापल्यापरीने गवसे आहोतक
ाहीतरी शोधायला आलो आहोत. हे पाहा, साहित्याची निर्मिती हा एकांताचा
उत्सव असतो; साहित्याचा आस्वाद हाही एकांताचा उत्सवच असतो. मग ही
मांदियाळी कशाला? असे म्हणतात, की एकाने केलेल्या प्रार्थनेपेक्षा समूहाने
केलेल्या प्रार्थनेची शक्ती अधिक असते. इथे काही आपण लिहायला आणि
वाचायला आलेलो नाही; इथे आपण आलो आहोत ते एकमेकांना भेटायला,
एकमेकांशी बोलायला, सर्वांशी हृदयसंवाद साधायला. लेखक, संपादक, प्रकाशक,
समीक्षक, ग्रंथपाल, पत्रकार आणि वाचक अशी ही मांदियाळी आहे. या विविध
दुव्यांतून एक प्रक्रिया पूर्ण होत असते. वाचलं आणि संपलं, लिहिलं आणि संपलं,
असं कधीच होत नसतं. भाषा आणि साहित्य या सामाजिक संस्था आहेत असे
आपण म्हणतो ते खरेच आहे; पण भाषा आणि साहित्य ही एक सामाजिक
प्रक्रियासुद्धा आहे, हे लक्षात ठेवले पाहिजे. कधी कधी आपल्याला प्रश्न पडतो, की
आपण लिहितो ते ठीक, पण ते लिहिलेले प्रकाशित का करतो? एका अबोध
अनुभवाचे बीज आपल्या अबोध मनात पडते. आत्मभान आणि वस्तुभान यांचा तो
संयोग असतो. तेव्हा ना त्याला रूप असते ना नाम; पण प्रतिभेच्या गर्भाशयात तो
अनुभव वाढत-घडत असतो. कुशीतील गर्भाचं रंगरूप मातेला तरी कुठं कळतं? पण
एक दिवस येतो आणि तो अनुभव हळूहळू किंवा झटक्यात कागदावर जन्म घेतो.
कवी अनिलांनी अचूक शब्दांत म्हटलंय :
अनवांछित गर्भाचे दिवस असे भरलेले
मन पहिलटकरणीसम प्रसवाला भ्यालेले
-तेव्हा जन्मदात्रीला अवर्णनीय आनंद होतो. लेखक कागदावरच्या आपल्या
अपत्याकडे पाहतो तेव्हा त्याला काळीनिळी अक्षरे मेघश्याम कृष्णासारखी वाटतात.
मातेला वाटतेच, आपली कन्या म्हणजे अगदी क्लिओपात्रा किंवा मोनालिसाच! पण
हे कुठवर? जोवर हस्तलिखित लेखकाच्या खणात असते तोवर. कन्यका वाढते,
मायबाई तिला शाळेत घालते. गणवेश. भोवती सहेल्यांचा घोळका. मग आईला
आपल्या मुलीची उंची, तिचं रंगरूप, तिची बुद्धी यांचा 'याचि देही याचि डोळां'
साक्षात्कार होतो; वर्गात किती मुली आहेत याचा बोध तिच्या गुणपत्रिकेवरून होतो!
आपले लेखन नियतकालिकांत प्रसिद्ध होणे म्हणजे लेकीला विद्यालयात प्रविष्ट
करणे. इथून पुढे लेखक स्वत:च्या निर्मितीकडे थोडे तटस्थपणे पाहायला शिकतो.
त्याची माया थोडी पातळ होते हे बरेच की! इथेही ही प्रक्रिया थांबत नाही- थांबू नये.
कधी तरी पुस्तक निघावे. पैसे देऊन किंवा घेऊन. कसेही; पण पुस्तक निघावेच.
पुस्तक प्रकाशित होणे म्हणजे कन्येला सासरी पाठवणे. नियतकालिकांतील
लेखनापेक्षा ग्रंथाचे आयुष्य सुदीर्घ असते. कधी तो ग्रंथ हॉटकेक्ससारखा विकला
जाईल तर कधी ग्रंथालयातील रॅकवर तिष्ठत राहील; पण राहील. असेल त्याच्यात
जीव तर येईलच समानधर्मा कधी तरी जन्मास. काल अनंत आहे आणि पृथ्वी विपुला
आहे यावर प्रत्येक सहित्यिकाने विेशास ठेवावा. उतावीळ होऊ नये; सासरी गेलेल्या
लेकीच्या संसारात लुडबूड करू नये. असे समजावे, की आता तिचे नाव-गाव
बदलले आहे ना, मग श्रेय- अपश्रेयही तिचेच, आपले नव्हेच. ग्रंथकाराने आपल्या
ग्रंथाबद्दल असा विवेक धरला की त्याला आपल्या निर्मितीच्या सर्व खाणाखुणा, सर्व
उणिवा दिसू लागतात. हा अनुभव लेखकाला नवे स्वातंत्र्य देतो, निर्मितीचे नवे बळ
देतो. हा माझा अनुभव आहे. मित्रहो, माझ्या पुस्तकांची नावे सारखीसारखी
आहेत : पार्थिवतेचे उदयास्त- अपार्थिवाचे चांदणे, पहिली परंपरा- दुसरी
परंपरा, पहिल्यांदा रणांगण- तिसऱ्यांदा रणांगण. नावे सारखी आहेत पण प्रत्येक
पुस्तक इतर सर्व पुस्तकांपेक्षा वेगळे आहे. अगदी अनन्य. ही अनन्यता म्हणजेच तर
साहित्यिकाचा विकास.
स्फुरण-लेखन-लेखप्रकाशन-ग्रंथप्रकाशन ही एक सलग प्रक्रिया आहे असे मी
का म्हणतो ते आता लक्षात येईल. ती अधेधे तोडता कामा नये. त्यामुळे लेखकाचा
विकास खंडित होतो. प्रकाशनामुळे काय मोठी प्रसिद्धी मिळते, काय पैसा मिळतो?
नन्ना. कधी कधी तर उलटही घडते. तरीही ही प्रक्रिया चालू ठेवायची असते. असतेच.
असे समानधर्मी एकत्र येतात तेव्हा ते आपोआप आपल्या पोटातली सुखदु:खे प्रकट
करतात. त्यातून प्रत्येकास नवे आत्मभान, नवे वस्तुभान प्राप्त होते. एकाच्या
प्रार्थनेपेक्षा अनेकांची प्रार्थना अशी फलद्रूप होते. असे म्हणतात, की एकत्र प्रवास
केल्याने, एकत्र जेवल्याने आणि रहस्याची देवाण-घेवाण केल्याने मैत्री दृढावते. या
क्षणी आपण साहित्यमैत्रीचे हे तीनही पैलू अनुभवीत आहोत- लक्षणेने. आज आपण
विज्ञान आणि तंत्रज्ञान यांची घोडदौड अनुभवीत आहोत; मात्र आपण यंत्रदास न होता
यंत्रस्वामी व्हायचे आहे. मराठी साहित्य विेशसंचारी होण्यासाठी इंटरनेट आणि
ब्लॉग या साधनांचा वापर आवश्यक आहे. नव्या पिढीने त्याचा मोठ्या प्रमाणात
अंगीकार केला आहे, ही अभिमानाची बाब आहे.
बोली, भाषा आणि परिभाषा
अभिधा, लक्षणा आणि व्यंजना. या शब्दांना दचकूया या नको. अरे, संगीत,
क्रिकेट, बुद्धिबळ यांतली अपरिचित-अवघड परिभाषा तुम्हाला चालते, मग
साहित्यशास्त्रानेच तुचे काय घोडे मारले आहे?
बोली, भाषा आणि परिभाषा यांतील फरक नीट लक्षात ठेवला पाहिजे : बोली
जनसामान्यांची असते. ती प्रवाही, नादमधुर आणि भावोत्कट असते. तिचे प्रभावक्षेत्र
मात्र सीमित. भाषा ग्रंथनिविष्ट, व्याकरणनिष्ठ, शिष्टसंत असते. तिचे प्रभावक्षेत्र
व्यापक असते. तिच्यात माधुरी आणि भावनिकता कमी पण वैचारिकता अधिक
असते. बोलीचे उच्चारण वाक्यसापेक्ष व म्हणून प्रवाही तर भाषेचे उच्चारण
शब्दसापेक्ष व म्हणून विविक्त असते. परिभाषा कठीण असते असे आपण म्हणतो ते
काही खरे नाही. विषय सोपा करण्यासाठीच तर परिभाषा असते. 'व्यंग्यार्थ' ही
आपल्याला अवघड पारिभाषिक संज्ञा वाटते, ती दोन मार्गांनी सुलभ होत असते :
'व्यंग्यार्थ म्हणजे अर्थाचा अर्थ'. या वाक्याचा बोध होण्यासाठी अर्थाचे प्रकार ज्ञात
असावे लागतात; जसे, वाच्यार्थ, तात्पर्यार्थ, लक्ष्यार्थ. कवितेध्ये हे तीन अर्थ तर
असतातच- नव्हे, असावेच लागतात. हे सगळे अर्थ शब्दातून, शब्दसमूहातून
प्रकटतात. या साऱ्या अर्थातून-शब्दातून नव्हे- जो अर्थ प्रकटतो त्याला म्हणतात
व्यंग्यार्थ. कवितेतील शब्दांचा अर्थ कळणे म्हणजे कविता कळणे नव्हे; फक्त भाषा
कळणे, अर्थाचा अर्थ कळणे म्हणजे कविता कळणे. मुळात शब्दार्थच कळला नाही,
भाषास्तरावरच कविता कळली नाही तर सगळेच मुसळ केरात! तिथे दोष कवीचा
असेल किंवा आपला. कुठलीच कविता दुर्बोध नसते; एक तर ती निरर्थक-असंबद्ध
असते किंवा आपण अप्रबुद्ध असतो. कुठलीच कविता दुर्बोध नसते.
-सांगायचा मुद्दा हा, की शास्त्रज्ञानाने किंवा प्रतीतीने परिभाषेचे ग्रहण करायचे
असते; ती सुबोधही नसते आणि दुर्बोधही नसते. ज्ञानव्यूहाने किंवा प्रतीतिव्यूहाने
तिचे ग्रहण करणे एवढेच आपल्या हातात असते.
क्रिकेटची परिभाषा आपल्याला चालते. स्क्वेअर ड्राइव्ह, गुगली, फॉरवर्ड
शॉर्टलेग अशी परिभाषेची सूक्ष्मताही आपण स्वीकारतो; मग साहित्यशास्त्रातील
असंलक्ष्यक्रमध्वनी, प्रतीतिउपायवैकल्य, लक्षणलक्षणा या परिभाषेला इतकं काय
घाबरायचं! यालाही अर्थात कारण आहेच : अहो, आपल्या आयुष्यात क्रिकेट जसं
मुरलेलं आहे तसं साहित्य मुरलेलं नाही. साहित्य मुरल्याशिवाय काय
साहित्यशास्त्राची परिभाषा अवगत होईल? वंगसमाज आणि दाक्षिणात्य समाज
यांच्या दैनंदिन आयुष्यातच साहित्य-संगीत-नृत्य इत्यादी कला भिनलेल्या आहेत. हे
समाजच कलाभिरुचिसंपन्न आहेत. आपला महाराष्ट्र शौर्यासाठी आणि बुद्धीसाठी
विख्यात आहे; कलेसाठी आणि भावनेसाठी तेवढा प्रसिद्ध नाही. म्हणून तर
महाराष्ट्रात विनोबा-आमटे-नारळीकर निर्माण होतात पण रवींद्रनाथ निर्माण होत
नाहीत. मराठी साहित्यावर आक्षेप घेताना ही वस्तुस्थिती नेहमी लक्षात ठेवली
पाहिजे. नाटक हे महाराष्ट्राचे दुसरे वेड आहे असे आपण म्हणतो. असेलही; पण
भारतीय स्तरावर मराठी साहित्याची ख्याती आहे ती निबंध-साहित्यशास्त्र-समीक्षा
या क्षेत्रांतच. हे सगळे ज्ञानक्षेत्रीय लेखन आहे.
तीन गुरुवर्य
अवधूत दत्तात्रेयाने चोवीस गुरू केलेत; या अध्यापक दत्तात्रेय भिकाजीने फक्त
श्री ज्ञानेशर, मर्ढेकर आणि डॉ. गणेश त्र्यंबक देशपांडे.
ज्ञानेश्वर महाराजांबद्दल काय बोलावं! योगी-दार्शनिक-षी-संत-कवी असे
ते रसायन. त्यांचे परिपूर्ण वर्णन करता येत नाही म्हणूनच की काय, आपण त्यांना
माउली म्हणतो! विेशात असे हे एकच उदाहरण आहे की जिथे ग्रंथ आणि ग्रंथकार या
उभयतांना एकच संज्ञा आहे : 'माउली'. या माउलीचे अंत:करण नितळ, निर्मळ
आणि हळुवार. लौकिकातील माता फक्त आपल्या अपत्यावर निरपेक्ष माया करते;
ज्ञानराज सर्व विेशावर अपत्यवत माया करतात. या त्यांच्या मायेलाच मी
'विेशवात्सल्य' असे म्हणतो. अस्सल आणि अव्वल साहित्यकृतीत दोन गुण
अवश्यमेव असतात : १) विेशवात्सल्य २) भावकाव्यात्मता. श्री ज्ञानेशरी हे
भाष्यकाव्य, तत्त्वकाव्य; परंतु तिच्यात भावकाव्यगुण ओतप्रोत भरलेला आहे.
ज्ञानेशरी ही केवळ साहित्यकृती नाही तर ती साहित्यकृतींचा संभारही आहे.
ज्ञानेशरीत जागोजाग मंत्र, धावा, प्रार्थना, पाळणा, आरती, स्तोत्र, अभंग इत्यादी
स्फुट रचनाप्रकारांची रेलचेल आहे- या दृष्टीने ज्ञानेशरीकडे आपण अजून पाहिलेच
नाही. ज्ञानेशरी हे गीताभाष्य आहे हे खरे; पण तिने गीतेचा रूपबंध नजरेसमोर
ठेवलेला नाही. तिचा आदर्श आहे महाभारत. म्हणून तर माउलीने महाभारताची
उत्कट आणि शास्त्रोक्त प्रशंसा केली आहे. 'महाकाव्या रावो। ग्रंथ गरुवतीच्या ठावो।
येथौनि रसा जाला आवो। रसाळपणाचा।।' हे ज्ञानेशरांचे उद्गार महाभारताइतकेच
ज्ञानेशरीसही लागू पडतात.
वाङ्मयकृतीमध्ये भावकाव्यात्मता हा गुण येतो तो पद्यामुळे किंवा
नादमधुरतुेळे नव्हे; अनुभवाला स्थलकालमुक्त केल्यामुळे वाङ्मयकृती
भावकाव्यात्मता येत असते. ज्ञानेशरीतील अनुभूती अद्वैताची आहे; ती
स्थलकालसापेक्ष असेलच कशी? मनोविकृतीतून निर्माण झालेले साहित्य आपण
वाचलेले आहे; समाजविकृतीतून निर्माण झालेले साहित्यही आपण वाचतोच
आहोत. श्री ज्ञानेशरी मात्र साक्षात्काराच्या अनुभूतीतून उद्भवलेली साहित्यकृती
आहे. ती रस्त्याच्या काठी उगवलेली रानवेल नाही तर पिढ्यान् पिढ्या संगोपन
केलेली ती उपवनातील कल्पकता आहे. गहिनीनाथांनी आपले शिष्य निवृत्तिनाथ
यांना सामान्यांच्या उद्धारासाठी प्रवृत्त केले.
आधिं तो तंव कृपाळु
वरि गुरुआज्ञेचा बोलु
जाला जैसा वरिषाकाळु
खवणलें मेघां।।
मग आर्त्ताचेन ओरसें
गीतार्थ ग्रथनमिसें
वरिखला शांतरसें
तो हा ग्रंथू।।
तेथ पुढां मी बापिया
मांडलां आर्त्ती आपुलेया
ययासाठिं यवडेया
आणिलां यशा।।
ज्ञानेशरमाउली स्थलकालमुक्त; ज्ञानेशरीही स्थलकालमुक्तच असणार. ती
नुसती समजून घ्यायची नाही, अनुभवायची. त्यांच्या साक्षात्काराच्या अनुभूतीत
आपले सीमित व्यक्तित्व विसर्जित करून टाकायचे.
जी व्यक्ती व्यक्तित्वमुक्त होते, आपले सीमितपण विसर्जित करते ती सर्व
विेशाची होते, सर्व विेश तिचे होते. 'हे विेशचि माझे घर' असे ती अगदी वाच्यार्थाने
म्हणू शकते. काय गंत आहे पाहा : श्री ज्ञानेशर गीतानिरूपण करताहेत. अशा प्रसंगी
ग्रंथकाराने भगवान कृष्णाची भूमिका स्वीकारणे किती स्वाभाविक! पण ज्ञानेशरीभर
ज्ञानेशर भूमिका स्वीकारताहेत ती निवृत्तिसुताची, बालकाची; आणि आपण सारे
मात्र त्यांना म्हणतो माउली. का? ज्ञानेशरांनी आपल्या निरुपाधिक आणि निरपेक्ष
मायेच्या उबदार आणि मऊ दुलईत सर्व विेशाला लपेटून घेतले आहे- छातीशी आणि
पोटाशी धरले आहे म्हणून. या जगात काही केवळ संतांचीच मांदियाळी नाही; 'चोर,
लबार, जुआरी' यांचीही रेलचेल आहे. आचार्यांप्रमाणे या निवृत्तिदासालाही माहीत
आहे, की हा विेशव्यवहार सत्य आणि असत्य यांच्या ताण्याबाण्याने विणलेला
आहे; पण म्हणून माउली नावाचा हा कल्पवृक्ष, ज्याने लावणी केली त्याला मी छाया
देईन आणि 'जो खांडावेया घाव घाली' त्याला छाया देणार नाही असे म्हणत नाही.
विेशवात्सल्य ते हेच. 'अलांच्छन चंद्रमे' असे संत आणि दुरिताने ग्रासलेले
व्यंकटराव या साऱ्यांनाच माउली पोटाशी धरते. आपण आपले म्हणत असतो,
समाजाने या भावंडांचा छळ केला. आपल्या परिमित दृष्टीने ते खरेच असते; पण
माउलीस तो छळ 'छळ' वाटला असेल? त्यांना ती अज्ञजनांची कृतीच वाटली
असणार. त्यांनी केवळ क्षमाबुद्धीने नव्हे तर मातृवात्सल्याने त्याकडे पाहिले
असणार. म्हणून मला नेहमी असे वाटते, की ज्ञानोबा रुसून-रागावून कुटीचे दार बंद
करून बसलेच नसतील. मुक्ताईला तसे वाटले असेल की नसेल कोणास ठावूक!
कदाचित भोवतीच्या नव्या संतांना धडा म्हणून त्या बहिणाबाईने आपल्या
अभंगाच्या द्वारे ताटीचे द्वार किलकिले केले असेल. अरे बाबा, हे कवी 'बीं'ना कळले
होते म्हणून तर त्यांनी 'चाफा' ही कविता लिहिली. चाफ्याच्या प्रेयसीला की
बहिणीला वाटते की चाफा खंत करतो- जणू काय तो रुसून-रागावून कुटीचे द्वार बंद
करून बसला आहे. बिच्चारीला अखेरीस कळते, की चाफा रुसलाही नव्हता,
रागावलाही नव्हता; दृष्टी आपली अधू होती; तो समाधिअवस्थेत होता.
मुळे ज्ञानेशरीची अशी दूर दूर पसरली आहेत; मात्र ती मराठी संस्कृतीच्या
गळ्याची तात नाही, ताईत आहे. माउलीने नाथपंथातील ज्ञान आणि भागवतपंथातील
भक्ती यांचा समन्वय साधला आहे. श्री ज्ञानेशर हा अजानवृक्ष नाही, ज्ञानवृक्ष आहे.
हा ज्ञानवृक्ष नामदेव महाराज आणि त्यांची प्रभावळ यांच्या रूपाने पंजाबपर्यंत
पसरला. आचार्य विनोबांनी नामदेव महाराजांच्या कार्याचे फार सूक्ष्म विवरण केले
आहे. त्यांनी सांगितले आहे, जिथे जिथे एकेशरी परधर्म वाढला तिथे तिथे नामदेव
महाराज पोचले. या महामानवाने 'ईेशर एकच आहे, त्याची रूपे अनंत आहेत' असा
वेगळा आणि व्यापक एकेशरवाद प्रसृत केला; एकेरी एकेशरवादाला शह दिला!
एकनाथ महाराजांना तर ज्ञानाचा 'एका' अशी बिरुदावली होती. नाथांनी माउलीच्या
गळ्याला लागलेली अजानवृक्षाची मुळी दूर सारली, समाधिस्थलाचे पुनरुज्जीवन
केले, ज्ञानदेवीची पाठशुद्ध प्रत तयार केली, एकनाथी भागवताच्या रूपाने ज्ञानेशरीचा
बहुजनसुलभ अवतार साकार केला- आपली बिरुदावली सिद्ध केली; आणि
तुकोबा? 'ज्याचे अभंग लागती खलहृदया जेवि बाण रामाचे' या भूमिकेने त्यांनी
समाजाचे शुद्धीकरण केले; त्यांनी ज्ञानोबांचा जयजयकार केला. आचार्य विनोबांनी
म्हटलेच आहे, श्री ज्ञानेश्वर हा हिमालय आहे तर श्री तुकोबा ही त्यातून निघालेली
गंगा आहे. ती सामान्याचे पापताप धुऊन काढून त्याला पवित्र, सुंदर करीत आहे.
ही झाली जुनी, मध्ययुगीन हकीकत. अर्वाचीन काळातही ज्ञानदेव ही शक्ती
कार्यक्षमच आहे. साहित्य संमेलनाचे प्रवर्तक न्या. महादेव गोविंद रानडे यांच्या
जीवनकार्याचा प्रेरणास्रोत संतवाङ्मय हाच होता- पर्यायाने श्री ज्ञानेशर. 'संत दिसती
वेगळाले। परि ते स्वरूपी असती मेळाले।।' हे वचन या अर्थानेही खरे आहे. ज्ञानेशर-
माउलीची जीवनदृष्टी आणि जीवनसरणी समन्वयवादी होती. म्हणून तर त्यांनी
सगुणोपासक नामदेव महाराजांना निर्गुणोपासक विसोबा खेचरांकडे पाठवले; त्यातून
सगुणोपासकाला निर्गुणोपासनेचे आणि निर्गुणोपासकाला सगुणोपासनेचे महत्त्व
जाणवून दिले; नाथ आणि वारकरी या पंथांध्ये समन्वय साधला; संस्कृत भाषा
आणि मराठी भाषा यांतील दूरत्व दूर केले. वैर, विद्वेष, संघर्ष यांना माउलीच्या मनात
स्थानच नाही. माउली कैवल्याचाच नाही तर मायेचाही पुतळा आहे. त्यांनी प्रतिपादन
केलेली 'शिवशक्तिसमावेशन' म्हणजे द्वैतवाद आणि अद्वैतवाद यांच्यांतील
समन्वयच आहे. इथे 'समन्वय' आणि 'तडजोड' या दोन शब्दांतील फरक लक्षात
ठेवला पाहिजे. तडजोडीत तोडणे आणि जोडणे अशी क्रिया असते, तडजोडीत दोन्ही
पक्षांना काही तरी गमवावे लागते तेव्हाच तडजोड होते; उलट समन्वयात दोन्ही पक्ष
लाभार्थी असतात, दोन्ही पक्षांना पस्तुरी लाभते.
समन्वयवादाची पस्तुरी
श्री ज्ञानेशर महाराज यांनी मराठी संस्कृतीला समन्वयवादाची पस्तुरी दिली
आहे. न्यायमूर्तींचा नेस्तवाद, उदारमतवाद हा ज्ञानेशरांच्या समन्वयवादाचाच
आविष्कार होय. त्यातूनच तर साहित्य संमेलन ही कल्पना उदित झालेली आहे. 'येथ
साहित्य आणि शांती । हे रेखा दिसे बोलती । जैसी लावण्यगुण युवती। आणि
पतिव्रता।।' ही साहित्य संमेलनाची खरी प्रकृती आहे.
एका फ्रेंच भाषाशास्त्रज्ञाने किंचित उपहासाने म्हटले आहे की भाषांतरित कृती
ही युवतीसारखी असते : ती सुंदर असते तेव्हा प्रामाणिक नसते आणि प्रामाणिक
असते तेव्हा सुंदर नसते! हे अगदी चूक आहे. कदाचित अन्य समाजाचा तसा अनुभव
असेलही. आपला अनुभव मात्र- निदान आदर्श- 'लावण्यगुण युवती आणि
पतिव्रता' हाच आहे. स्वैराचार आणि एकनिष्ठा यांतील हेय-श्रेय आता
मानवजातीच्या लक्षात येत आहे. निदान आरोग्यासाठी तरी एकनिष्ठा आवश्यक आहे
हे आता तरी मानवजातीला पटायला लागले आहे.
ज्ञानेशरीप्रेरणा न्यायमूर्तींपाशीच थांबली नाही; ती आचार्य विनोबांपर्यंत जाऊन
पोचली. 'मराठी साहित्य - ज्ञानेशरी = ०' अस विनोबाजींनी म्हटले आहे. मी त्यात
थोडा बदल करतो : 'मराठी संस्कृती- ज्ञानेशरी = ०'. ज्ञानेशर या साक्षात्कारी शक्तीने
मराठी संस्कृती घडवली- वाढवली, तिला शिवतत्त्वाचे अधिष्ठान दिले. नामदेव
महाराज, एकनाथ महाराज, तुकाराम महाराज, न्या. रानडे, आचार्य विनोबा यांच्या
स्वरांत आपणही त्या महाशक्तीचा जयजयकार करू या.
महाराष्ट्राचे भौगोलिक स्थान आणि सांस्कृतिक भान पाहिले की ज्ञानाईचा
समन्वयवाद किती प्रयोजनपूर्ण आणि आशयगर्भ आहे याची जाणीव होते :
भौगोलिकदृष्ट्या महाराष्ट्र भारतवर्षाच्या हृदयस्थानी आहे. इथून सांस्कृतिक
रक्तवाहिन्या पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण पसरल्या आहेत. इथला युयुत्सु स्वार सुरतअट
क, कटक-तंजावर इथपर्यंत पोचला. इथला संतांचा अमृतसागर कराचीपासून
काशीपर्यंत, काशीपासून रामेशरापर्यंत हेलावत राहिला. महाराष्ट्र माझा कलाकुसर
आणि व्यापारउदीम यांत थोडा डावा पडत असेल; पण त्याची कसर तो शक्ती आणि
भक्ती यांत भरून काढतो. महाराष्ट्राच्या या शक्ती-भक्तीने 'भारत जोडो' अभियान
साधले. प्रांतोप्रांतीचे समाज इथे विसावले. त्यांनी त्यांच्या प्रादेशिक आणि भाषिक
विशेषांचे सत्त्व इथे ओतले, मराठी संस्कृतीला बहुरूपी आणि बहुुखी केले. महाराष्ट्र
संस्कृतीचे वैशिष्ट्य हे, की अशा विविध घटकांनी तिची एकसंधता दुभंगली नाही.
महाराष्ट्र संस्कृतीकडे पाहिल्यावर रहमानच्या कोलाज संगीताचे स्मरण होते ते उगाच
नव्हे!
पूर्व महाराष्ट्र वगळून उर्वरित महाराष्ट्र डोंगराळ प्रदेश आहे. डोंगराळ प्रदेशातील
समाजाची अस्मिता तीव्र असते, असे समाजशास्त्रज्ञ सांगतात. मराठी माणसाची
अस्मिता उत्कट आहे त्याला हे भौगोलिक कारणही आहेच. वंगसमाज आणि
दाक्षिणात्य समाज यांच्या अस्मितेला असे भौगोलिक कारण दिसत नाही. त्यांच्या
अस्मितेस एक निमित्त आहे त्यांची लिपी. हिंदी आणि मराठी या दोन्ही भाषांची लिपी
एकच- देवनागरी- आहे. त्यामुळे मराठी माणसास हिंदी आत्मसात करणे सोपे.
ज्यांची लिपी देवनागरी नाही त्यांना मात्र हे अवघड. अशा भिन्नलिपीय समाजाचे
अनुकरण करण्याऐवजी आपण त्यांना देवनागरीकडे वळवले पाहिजे. त्यामुळे हे
भिन्नलिपीय समाज मराठी भाषेच्या सहज जवळ येतील. भारतातील भाषिक वादाचे
एक कारण लिपिभिन्नता आहे हे आपण लक्षातच घेत नाही.
मेजर टॉस कॅंडी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, आचार्य विनोबा भावे यांनी
देवनागरीतील विरामचिन्हे आणि वर्णलेखन यांत अनेक सुधारणा सुचविल्या; परंतु
त्या अजूनही आपल्या पचनी पडल्या नाहीत. देवनागरीत अधोबिंदू (नुक्ता) असावा
म्हणजे मग च-च्य, ज-ज्य हा उच्चारभेद परभाषकांना आणि जनसामान्यांना कळेल,
असा कॅंडीसाहेबांचा आग्रह किती रास्त होता; परंतु अव्वल इंग्रजीतील पंडितांना तो
रुचला नाही. त्याचा दुष्प्रभाव आजतागायत आपण सोसतो आहोत.
भाषाशुद्धी आणि भाषासमृद्धी
भाषाशुद्धीसंबंधीची आपली भूमिकाही आपण अशीच जोखून घेतली पाहिजे.
पारतंत्र्याच्या काळात भाषाशुद्धी ही स्वातंत्र्यलढ्याचेच एक हत्यार होते. परभाषिक
शब्द अव्हेरण्याने स्वातंत्र्याची चाड धारदार होत होती, परकीयांबद्दलची चीड
चेतवली जात होती. आता स्वातंत्र्यकाळात भाषाशुद्धीचा विचार भाषासंस्था आणि
सांस्कृतिक सातत्य या अंगाने केला पाहिजे. परभाषेतील शब्द घेऊच नये अथवा
परभाषेतील शब्द बिनदिक्कत वापरत जावेत, या दोन्ही भूमिका एकांगी आहेत. अहो,
परकीय शब्दांनी भाषा विटाळत नाही, परकीय प्रत्यय आणि क्रियापदे यांनी भाषा
विटाळते. परकीय शब्दही घ्यायचे ते अर्थभेद आणि भावभेद लक्षात घेऊन. तसे
आपण नकळत करीतही असतो. जसे : वैद्य-डॉक्टर, मेज-टेबल, लेखणी-पेन इ.
परंतु नेहमीच असा विवेक आपण बाळगतो असे नाही. आपल्या भाषेतील रूढ,
रुचकर आणि स्वादिष्ट शब्द हुसकावून त्यांच्या जागी सांस्कृतिक सातत्य नसलेले
मड्डमी शब्द वापरणे म्हणजे खचितच आपली भाषा भ्रष्ट करणे होय; परंतु आपला मूळ
शब्द कायम ठेवून त्यापेक्षा किंचित वेगळी अर्थच्छटा किंवा भावच्छटा दाखवणारा
परभाषिक शब्द वापरणे यात गैर काहीच नाही- नव्हे, ते भाषासमृद्धीचे लक्षण आहे.
आंग्लभाषेने घी, पक्का, तिपाई, बंदोबस्त असे किती तरी भारतीय शब्द अंगीकारले
आहेत, त्यामुळे इंग्रजी भाषेची शब्दसंपत्ती वृद्धिंगत झाली आहे. परकीय शब्दांना
भिऊ या नको. अशा भीरुतोगे सांस्कृतिक अभिमान थोडा आणि सांस्कृतिक
न्यूनगंड जाडा असतो
भाषाशुद्धीबरोबरच भाषासमृद्धीकडेही आपण लक्ष दिले पाहिजे. ही
भाषासमृद्धी कशी येते? केवळ परभाषेतील भिन्न अर्थच्छटा असलेले शब्द
स्वीकारल्याने नव्हे- ती चिंचोळी पायवाट आहे. तिच्याच जोडीला बोलीतील शब्द
स्वीकारले पाहिजेत. आपल्या भाग्याने प्राण मराठीला अनेक बोली लाभल्या
आहेत: वऱ्हाडी, खानदेशी, दखणी, मावळी इ. इ. अहो, बोली हेच भाषासंस्थेचे
आद्य रूप असते. कुठलीही बोली ऐका- तिच्यात तालबद्धता, नादमधुरता,
भावपूर्णता हे गुण ओतप्रोत असतात. कालांतराने तिच्यातील तालबद्धता आणि
नादपूर्णता यांचा विकास होऊन पद्यभाषा जन्मास येते तर तिच्यातील सुप्त वैचारिकता
पल्लवित होऊन गद्यभाषा अवतीर्ण होते. बोली, भाषा आणि परिभाषा यांच्यांतील
भेद-प्रभेद आकळले म्हणजे त्यांच्यांत उच्चनीचता नसून प्रयोजनभेद आहे हे लक्षात
येते. परिभाषा फक्त शास्त्रातच नसते; प्रत्येक जीवनव्यवहारात, तो व्यवहार सुलभ
करण्यासाठी, अलिखित परिभाषा असतेच. कास्तकाराची परिभाषा वेगळी आणि
गृहिणीची परिभाषा वेगळी. माझ्या बालपणी खेड्यातल्या माझ्या मावश्या पातेलं-
तपेलं-भगुलं-ओगराळं-पळी-डाव-सराटा-उलथणं-झारा-भांडं-फुलपात्र-
तांब्या-गडवा-कळशी-घागर-बादली-घंगाळं-हंडा-गुंड अशी माजघरातली
परिभाषा हमेशा वापरत ती काय आपलं पांडित्य दाखवायला? नाही, व्यवहार सुकर
आणि अचूक व्हायला. शास्त्रातली परिभाषासुद्धा याच हेतूने पण अधिक प्रगल्भतेने
निर्माण होत असते. आपल्या अज्ञानामुळे अथवा आलस्यामुळे ती आपणांस अवघड
वाटत असते. खरे तर तिच्यामुळे विषय अचूक आणि आकलनक्षम होत असतो.
एखादे नवे शास्त्र जेव्हा परदेशातून आपल्या प्रदेशात येते तेव्हा स्वाभाविकच
परभाषेतील परिभाषा जशीच्या तशी वापरावी लागते किंवा ती भाषांतरित करावी
लागते. काहीही केले तरी प्रारंभी प्रारंभी ही नवशास्त्रातील नवपरिभाषा अपरिचित
म्हणून अवघड आणि क्वचित हास्यास्पदही वाटते. कार्यालय, सचिवालय, मंत्रालय,
संचालनालय, संभाग, प्रभाग हे शब्द आता मराठीत रूढ झाले आहेत; पण एके
काळी मात्र तो चेष्टेचा विषय होता. लोकमान्य आणि स्वातंत्रवीर यांनी या प्रक्रियेस
चालना दिली. कालांतराने मध्यप्रदेश सरकारच्या प्रेरणेने डॉ. रघुवीर यांनी प्रचंड कार्य
केले. दुर्दैवाने त्यांची चेष्टा आणि उपेक्षा झाली. आमच्या परिभाषा समितीतील एक
घटना सांगतो : बोलता बोलता 'डॉ. रघुवीर' हा विषय निघाला. आमच्यातील एक
सदस्य कुचेष्टेने म्हणाले, ''रघुवीर? त्याने नेकटायला 'कंठलंगोट' असा प्रतिशब्द
दिला आहे.'' मी तडकलोच. म्हटलं, ''असं नाही.'' हळूहळू चर्चेला वादाचं स्वरूप
आलं. मी म्हटलं, ''मागवा रघुवीरांचा महाकोश.'' आला. मी नेकटाय शब्द
दाखवला. त्याला कंठलंगोट असा प्रतिशब्द नव्हता, नेकटायपेक्षाही सुबक आणि
अन्वर्थक शब्द होता: 'कंठभूषण'. किती देखणा आणि सांस्कृतिक सातत्य राखणारा
शब्द! शिरोभूषण, कर्णभूषण तसा कंठभूषण. डॉ. रघुवीर महापंडित होते. त्यांनी
खरोखरच अनेकानेक पारिभाषिक संज्ञा भारतीय भाषांना बहाल केल्या आहेत.
कृत्रिमपणा, बोजडपणा, संस्कृतप्राचुर्य असे अनेक आरोप त्यांच्यावर करण्यात
आलेत, त्याची पुन्हा एकदा शहानिशा व्हायला हवी आहे. अहो, पारिभाषिक संज्ञा
सुट्या नसतात, त्यांचे कुल असते. जसे, विधी-विधान-संविधान-प्राविधान हे
शब्दांचे एक कुल आहे. व्यवहारात सोपे समजले जाणारे शब्द असे कुलसाधक
नसतात. 'वराह'पासून वराहपालन, वराहवर्ग, वराहव्याधी असे शब्द तयार होतातत्य
ातून ग्राम्य भावनेचा परिहार होतो; परंतु त्याच्याऐवजी व्यवहारातील 'डुक्कर' हा
शब्द पारिभाषिक संज्ञा म्हणून स्वीकारला तर तिथे ग्राम्यतापरिहारही होत नाही व
त्याच्यापासून शब्दकुल निर्माण होणेही कठीण होते.
बोली, भाषा व परिभाषा यांच्या संदर्भातील हा विवेक आपण नेहमी
अंत:करणात बाळगला पाहिजे.
साहित्याची भाषा
'साहित्याची भाषा' ही आणखीच एक वेगळी गुहा आहे. म्हणताना आपण
म्हणतोच, 'ही मराठी कादंबरी', 'हे इंग्रजी नाटक', 'ही रशियन कथा'. आपले हे
बोलणे खरेच असते; परंतु तिथे आपण साहित्यकृतीसंबंधी बोलत नसतो तर तिचे
भाषिक वर्णन करीत असतो. साहित्यकृतीची दर्शनी भाषा अशी देशकालवाचकच
असते. साहित्यकृतीचा आस्वाद घेताना तिचे हे दर्शनी अस्तित्व आकळावेच लागते.
ते न कळताही साहित्यकृतीचा आस्वाद घेता आला असता तर मग आणखी काय हवे
होते? कुठल्याही भाषेतील साहित्यकृती ती भाषा न शिकता आपण अनुभवू शकलो
असतो! साहित्यकला आणि साहित्येतर ललितकला यांच्यांतील हा भेद निर्णायक
आहे. जर्मन संगीतकाराचे संगीत, रशियन नर्तिकेचा बॅले, फ्रेंच चित्रकाराचे चित्र
आपण जसे आस्वादू शकतो तशा त्यांच्या त्यांच्या भाषेतील साहित्यकृती आस्वादू
शकत नाही. असे का होते? संगीत-नृत्य-चित्र या संवेदनानिष्ठ कला आहेत. संवेदना
सार्वत्रिक असतात, निसर्गदत्त असतात. याच्या उलट साहित्यकला संवेदनानिष्ठ
कला नाही, ती भाषा (सामग्री) आणि अनुभूती (माध्यम) यांनी घडलेली असते.
भाषासंस्था निसर्गदत्त नसते, ती मानवनिर्मित, समाजनिर्मित संस्था आहे. जर ती
निसर्गनिर्मित असती तर संवेदनांप्रमाणे ती सार्वत्रिक झाली असती, जगात सर्वत्र
एकच एक भाषा असती. आपणा सर्वांची मग किती सोय झाली असती! पण असे
नाही रे बाबा! त्या त्या भाषेतील साहित्यकृती अनुभवण्यासाठी त्या त्या भाषेचे ज्ञान
अपरिहार्य असते- कवीला आणि आस्वादकालाही. दुर्बोध समजल्या जाणाऱ्या
वाङ्मयकृतीच्या संदर्भात कवीचे किंवा रसिकाचे भाषाज्ञानच तर तोकडे पडत असते.
कवितेच्या व्याख्या अनेक आहेत. त्यापैकी, 'पोएट्री इज लॅंग्वेज चार्ज्ड विथ मीनिंग
टु इट्स अटमोस्ट पॉसिबल डिग्री.' कमाल अर्थवत्तेने भारलेली भाषा म्हणजे
कविता- हे जर खरे असेल तर दुर्बोध कविता ही कविताच नव्हे- कवीच्या वा
वाचकाच्या अंगाने- कारण ती भाषिक कृतीच नसते, तो केवळ भाषाभास असतो.
ज्या कवितेला दर्शनी अर्थच नाही तिला कविता काय, भाषा तरी कसे म्हणायचे?
आणि कवितेची व्याख्या तर 'कमाल अर्थवत्तेने भरलेली भाषा' अशी...! काय?
भारतीय साहित्यशास्त्राने अर्थाचे काय उगाच इतके प्रकार सांगितले?-
१) वाच्यार्थ ऊर्फ संकेतित अर्थ ऊर्फ मुख्यार्थ
२) तात्पर्यार्थ ऊर्फ वाक्यार्थ
३) लक्ष्यार्थ ऊर्फ अर्पितार्थ
४) व्यंग्यार्थ ऊर्फ ध्वन्यर्थ ऊर्फ प्रतीयमान अर्थ
परिभाषेत निर्भेळ वाच्यार्थ असतो, व्यावहारिक भाषाही वाच्यार्थप्रधानच
असते. शास्त्रीय लेखनात अत्यावश्यक प्रसंगीच लक्षणा वापरायची असते. ज्यांना
आपण वाक्यप्रचार, म्हणी, अलंकार म्हणतो ते सर्व लक्ष्यार्थाचे प्रकार असतात.
अनेकदा समाजात म्हणींचा लाक्षणिक अर्थ लक्षात न घेता केवळ वाच्यार्थ लक्षात
घेऊन त्यावर रण माजवले जाते त्याचे कारण लक्ष्यार्थज्ञान हेच होय.
वाङ्मयामध्ये वाच्यार्थ असतो, लक्ष्यार्थ असतो; शिवाय या दोन अर्थांतून
निर्माण होणारा, अर्थाचा अर्थ असा, व्यंग्यार्थ असतो. व्यवहारात अगदी पुसटपणे
आणि अपवादाने व्यंग्यार्थ आविष्कृत होतो तर वाङ्मयकृती व्यंग्यार्थप्रधानच असते.
व्यंग्यार्थहीन काव्य हे काव्यच नसते. त्याला आनंदवर्धनाने 'अधमकाव्य' म्हटले
आहे. तेव्हा त्याचे विरोधक म्हणाले, ''व्यंग्यार्थहीन काव्य जर काव्यच नसते तर
त्याला तुम्ही अधम 'काव्य' तरी का म्हणता?'' बिनतोड वाटतो ना प्रश्न? पण
आनंदवर्धनाचे उत्तर त्याहूनही बिनतोड आहे. तो म्हणतो, ''तुम्ही म्हणता ते खरे
आहे. व्यंग्यार्थहीन काव्य काव्यच नसते, तरीही आम्ही त्याला अधम 'काव्य'
म्हणतो, त्यामागची कवीची काव्यनिर्मितीची इच्छा लक्षात घेऊन!''
व्यंग्यार्थ हा अर्थझंकार असतो, तो अर्थसंस्कार असतो. त्याच्या
आकलनासाठी वाचकापाशी प्रतिभा असावी लागते- नुसती रसिकता नाही. म्हणून
तर मम्मटाने रसिकाला 'प्रतिभाजुष' म्हटले आहे, 'सहृदय' म्हटले आहे- ज्याला
कवितेचे हृद्गत कळते तो सहृदय.
साहित्यातील मूल्यभाव
मित्रांनो, मला अर्थाचा आणखी एक प्रकार जाणवतो : व्यूहार्थ.
वाङ्मयकृतीमध्ये शब्द, वाक्य, अर्थ, अर्थाचा अर्थ हे सारे असतेच- असावेच; परंतु
हे अर्थ स्थिर नसतात; फिरते, गतिमान, चैतन्यपूर्ण असतात. या जिवंतपणातून त्या
अर्थपुंजाला लय लाभत असतो. या लयधर्मातून विविध अर्थांचे विविध बंध तयार
होतात. संगीतकलेच्या जाणकाराला ही प्रक्रिया सहज लक्षात येईल. या लयबद्ध
अर्थपुंजांनाच मी लयव्यूह असे म्हणतो. वाङ्मयकृतीची खरी भाषा लयव्यूहाची
भाषा असते. ती कालची नसते, आजची नसते, ती मराठी नसते, अमराठी नसते, ती
लयाची-चैतन्याची-सौंदर्याची-रसाची चिरकालिक भाषा असते.
ती समजायची नसते, आस्वादायची असते. ती आस्वादण्यासाठी
तिच्याप्रमाणेच आपल्यालाही देशकालपरिस्थिती या सीमेपासून मुक्त व्हावे लागते.
आपले व्यक्तिबंधन असे सुटले की आपला आस्वाद स्वसापेक्ष न राहता मूल्यसापेक्ष
होतो. कसा?
वस्त्रहरण चांगले की वाईट, असा प्रश्न कुणी कुणाला विचारला, तर हिप्पी-
डान्सबाला-साधू-स्त्री-पुरुष या सगळ्यांची उत्तरे वेगवेगळी येतील. ती सर्व उत्तरे
देशकालपरिस्थितिसापेक्ष असतील; पण 'द्रौपदीवस्त्रहरण' आपण जेव्हा नाटकात
पाहतो, तेव्हा 'मी स्त्री आहे/ पुरुष आहे / भारतीय आहे' असा सीमित भाव आपल्या
मनात नसतो. तिथे आपण स्वमुक्त मूल्यभावाने त्या प्रसंगाचे ग्रहण करीत असतो.
अन्याय-अत्याचार-विटंबना यांच्या दर्शनाने न्याय-स्वातंत्र्य-सन्मान या
मूल्यभावाने आपण तो प्रसंग ग्रहण करतो. ही स्वमुक्त, मूल्यनिष्ठ अवस्था आनंदमय
असते.
याचा अर्थ वस्त्रहरण नेहमीच त्याज्य आहे का? अरे बाबा, दु:शासनाने केलेले
द्रौपदीचे वस्त्रहरण त्याज्यच; पण श्रीकृष्णाने गोपींचे केलेले वस्त्रहरण मात्र त्याज्य
नव्हे. का? कृष्णाप्रमाणे आपण पुरुष आहोत म्हणून? की अशाच काही व्यक्तिगत
कारणाने? नव्हे. द्रौपदीप्रकारात बळजबरी आहे, द्वेष आहे; स्त्रीजातीचा नव्हे तर
मानावाच्या स्वातंत्र्याचाच तिथे अपमान आहे. स्वमुक्त, मूल्यात्मक आकलन ते हे.
उलट, श्रीकृष्णाने केलेल्या वस्त्रहरणामुळे गोपींना गुदगुल्या होत असणार; कारण इथे
उभयपक्षी प्रे आहे, स्वातंत्र्य आहे. सीताहरण आणि रुक्मिणीहरण यांच्यांतील
फरकही आता लक्षात येईल.
वाङ्मयकृतीमध्ये अनुभव दिसतो विशिष्टाचा; पण त्या विशिष्टातून तो
आपणांस अंतिम मूल्याच्या आधारे विेशात्मकतेकडे नेत असतो. व्यवहारात आपण
सामान्याकडून म्हणजे वर्गाकडून विशिष्टाकडे जात असतो. विशिष्टाशी देवाणघेवाण
करता येते. उलट, वाङ्मयामध्ये आपण विशिष्टाकडून वर्गाकडे,
सामान्याकडे, विेशात्मकतेकडे जात असतो. अशा अमूर्ताशी देवघेव कशी करता
येईल? तिथे फक्त मूल्यगर्भ आस्वादच शक्य असतो. हा स्वमुक्त, मूल्यगर्भ आस्वाद
अनेक कारणांनी अनुभवसमृद्धी देणारा आणि आनंददायी असतो. हे का शक्य होते?
वाङ्मयीन पुनर्जन्म
काव्यनिर्मितिक्षणी कवीही अशाच स्वमुक्त आणि मूल्यगर्भ भूमिकेतून निर्मिती
करीत असतो; तो काही स्वत:ची खासगी सुखदु:खे चिवडीत नसतो- भलेही तशी
सुखदु:खे सामग्री म्हणून त्याच्या लेखनात येत असली तरी. कवीच्या या भूमिकेलाच
लौकिकभिन्न भूमिका असे म्हणतात.
कवीची भूमिका लौकिकभिन्न, रसिकाची भूमिका लौकिकभिन्न. पाण्यात पाणी
मिसळलं तर हे पाणी वेगळे आणि ते पाणी वेगळे, असे काही म्हणता येत नाही. कवी
आणि रसिक यांची भूमिका एकजातीय असल्यामुळे त्या भूमिका पूर्ण एकरूप होतात
यात आश्चर्य कसले?
कवी आणि रसिक यांचे असे ऐकात्म्य व्हायचे तर भाषा
स्थलकालपरिस्थितिसापेक्ष असून कशी चालेल? तीही स्वमुक्त आणि मूल्यगर्भ
असावी लागते. अहो, व्यंग्यार्थ म्हणजे तरी आणखी दुसरे काय? तो अर्थाचा अर्थ
असतो, तो अर्थसंस्कार असतो, तो अर्थझंकार असतो, तो अर्थव्यूहाची भाषा असतो
याचाच अर्थ तो स्थलकालपरिस्थितीची कवचे दूर सारणारा अर्थ असतो. 'आधी
बोलाची वालीफ फेडिजे' असे ज्ञानदेव का उगाच म्हणतात?
कवी, काव्यभाषा आणि रसिक या तीनही घटकांचे असे अवस्थांतर होत
असते; या तीनही घटकांचा उन्नत पुनर्जन्म होत असतो.
वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा सिद्धांत तो हाच.
आपले दैनंदिन व्यावहारिक जीवन ही सामान्य बाब नव्हे. त्याचे मोल अनन्य
आहे. त्याचे स्वरूप व महत्त्व आपण लक्षात घेतले पाहिजे. काय असते आपल्या
व्यावहारिक आयुष्याचे स्वरूप? सकाळी उठल्यापासून पहाटे जागं होईपर्यंत, जन्म,
खेळ, शिक्षण, चाकरी, विवाह, संसार, आरप, मृत्यू. जागृती, निद्रा, स्वप्न. या
साऱ्या घटना आणि अवस्था भिन्न भिन्न आणि लहान-मोठ्या आहेत. पूजाअर्चा,
नवससायास, सणयात्रा ही जंत्री हवी तेवढी वाढविता येईल. धर्म, अर्थ आणि काम
या तीन पुरुषार्थांशी हे आपले व्यावहारिक जीवन जखडलेले असते- नव्हे, त्यामुळेच
आपल्या जीवनाला केंद्र-आशय-आकार प्राप्त होत असतो. आपले व्यावहारिक
आयुष्य आशयशून्य असते तर आपल्यांत आणि पशुपक्ष्यांच्या आयुष्यांत काही
भेदच राहिला नसता; आपण पुच्छशिंगरहित जनावर ठरलो असतो.
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष यांना अंतिम जीवनमूल्यांचे स्थान आहे. ही
जीवनमूल्ये कधीही साधनात्मक नसतात, साध्यरूप असतात. ती कधीही
'कशासाठी' नसतात, 'त्यांच्यासाठी' सर्व काही असते. त्यांचा हा क्रमदेखील
अर्थपूर्ण आहे :
१) धर्म- समूहनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
२) अर्थ- व्यक्ती-समूहनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
३) काम- व्यक्ती-व्यक्तिनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
४) मोक्ष- व्यक्तिनिष्ठ अंतिम जीवनमूल्य
या चार पुरुषार्थांपैकी पहिल्या तीन पुरुषार्थांनी आपले समग्र व्यावहारिक
जीवन व्यापलेले आहे आणि अर्थपूर्ण झालेले आहे. अशा व्यावहारिक जीवनाला
सामान्य, जुजबी कोण म्हणेल? ही परिभाषा जर कुणाला मध्ययुगीन किंवा प्रतिगामी
वाटत असेल तर तिच्याऐवजी त्याने खुशाल समाजमनस्कता-वाणिज्यव्यवहारसुरत,
समानता-बंधुता-स्वातंत्र्य वगैर वगैरे परिभाषा योजावी.
लौकिक जीवन
अशा या आपल्या जीवनालाच तत्त्वज्ञानात 'लौकिक जीवन' असे म्हणतात.
या व्यावहारिक ऊर्फ लौकिक जीवनाचे वैशिष्ट्य म्हणजे ते क्रियाप्रवर्तक
असतं. व्यवहारातील, आपल्या मनातील कुठलीही भावना किंवा विचार आपणांस
कर्मप्रवृत्त करीत असतो- मग ते कर्म सूक्ष्म असो, स्थूल असो किंवा कर्मप्रेरणा
आवरण्याचे कर्म असो.
ही कर्मप्रवृत्ती तरी का चेतविली जाते? कारण व्यवहारात आपले मन सतत
काही तरी मागत असते, नाकारत असते. हवे-नकोच्या या प्रक्रियेलाच
'प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपता' असे म्हणतात. म्हणूनच लौकिक व्यवहार कर्मरूप,
प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप असतो असे म्हणायचे. घरी बसल्या बसल्याही माणसे का थकतात
ते आता कळले ना? तेव्हा त्यांच्या मनात हवे-नकोची रस्सीखेच चाललेली असते,
त्या ओढाताणीने ते थकतात. ते (म्हणजे आपण सारे) स्कूटर जागच्या जागी सुरू
ठेवून पेट्रोल जाळत असतो. अहो, म्हणून तर म्हणायचं, लौकिक जीवन
सुखदु:खरूप असते. हवे ते मिळाले, नको ते दूरच राहिले की सुख; नको ते गळ्यात
पडले, हवे ते दूर पळाले की दु:ख. हे सुखदु:ख कधी परमाणुएवढे असेल, कधी
परमाणुस्फोटाइतके विराट असेल. साहेब, प्रश्न सुखदु:खाच्या आकाराचा नाही,
प्रकाराचा आहे. ठीक?
कर्मरूपता, हवे-नकोपणा, सुखदु:खमयता असे व्यावहारिक जीवनाला
स्वरूप का येते? आपले मीपण. हे मीपण वाईट नसते हो; आवश्यकच असते,
अनिवार्य असते. असे मीपण आपल्यांत नसेल तर आपली बायको आणि दुसऱ्याची
बायको, अपत्यसंगोपनाची जबाबदारी, व्यावसायिक कर्तव्य यांचा नुसता गोकाला
होऊन जाईल; समाज नावाची वस्तूच शिल्लक राहणार नाही. आपले मीपण इतके
मूल्यवान असते. या मीपणालाच व्यक्तिसंबद्धता असे म्हणतात. व्यक्तिसंबद्धता
बिलकुल हीन नाही. ते लौकिक व्यवहाराचे गंभीर मूल्यच आहे. ऍन रॅंड या विदुषीने
तर 'व्हर्च्यू ऑफ सेल्फिशनेस' असा सिद्धान्तच मांडला आहे. भाविक लोक नेहमी
आपल्याला सांगत असतात, बाबा रे, मन चंचल आहे, ते आवर. त्यामुळे
आपल्याला वाटायला लागते की चंचलता हा मनाचा मोठा रोगच आहे. नाही हो,
चंचलता मुळात मनाची मोठी शक्ती आहे. कशी? चंचलता हा शब्द चुकीचा, चापल्य
हा शब्द बरोबर. 'अचपळ मन माझें नावरे आवरिता' हे रामभक्तीच्या संदर्भात
बरोबरच; पण व्यवहारात मनाचे अचपळपण म्हणजे अतिचपळपण अगदी योग्य.
एकाग्रपणे वाहन चालवितानाही धनराज पिल्लेइतकी, मुंगसाइतकी,
पाऱ्याइतकी चपळता आवश्यक असते. असतेच. विचार करा. या चपळपणाइतके
मीपणही व्यवहारात उचित. चपळपण जसे बहुुखी, बहुरूपी तसेच मीपणही
बहुुखी, बुहुरूपी. त्याचे एक उदाहरण सांगतो : कल्पना चावला. तिच्या
विक्रमाकडे किती वेगवेगळ्या मीपणाने पाहता येते! ती स्त्री- मी पुरुष; ती स्त्री- मी
स्त्री, ती मानव- मी मानव अशा अनेकानेक आकारांनी प्रत्येकाचा 'मी' प्रकटत
असतो. या व्यक्तिसंबद्धतुेळेच तर या विेशाचा आपल्या प्रत्येकाचा अनुभव अनन्य
असतो. दुसरे उदहारण सांगतो :
रस्त्यात अपघात होतो. एक माणूस 'मला काय त्याचे' असे म्हणून पुढे
सटकतो. दुसरा केवळ तटस्थ कुतूहलाने निरीक्षण करतो. तिसरा म्हणतो, 'देवा, तू
किती दयाळू आहेस! माझ्या शत्रूचा नाश इतका तडकाफडकी होईल असे मला
वाटले नव्हते!' आणि त्या जखमी देहाचा आप्त बिचारा टाहो फोडून रडत असतो.
व्यक्तिसंबद्धतुेळे एकाच घटनेचे असे विभिन्न अन्वयार्थ लावले जातात.
म्हणूनच असे म्हणतात, की आप-पर-तटस्थ या तीन भूमिकांवरून आपण
व्यावहारिक जीवनाचा अन्वयार्थ लावीत असतो.
आता पाहा. नाटकाचा असा अन्वयार्थ आपण लावतो का? अगदी नटीचा
नवरा प्रेक्षकांत बसला आहे असे समजा. समोर नायक त्या नटीला जवळ ओढतो-
बायको म्हणून. हा प्रेक्षक नवरा त्यावर आक्षेप घेतो का? त्याने घ्यावा का?
स्त्रीप्रेक्षकाने स्त्रीपात्रांची बाजू घ्यावी, पुरुषप्रेक्षकांनी पुरुषपात्रांची असे व्हावे का?
असे होत असेल तर ते गैर, असेच आपण म्हणतो. लौकिक जीवनातील सर्व घटक
साहित्यात अवतीर्ण होत असतात म्हणून तर साहित्याला जीवनाची अनुकृती,
जीवनाचे प्रतिबिंब, लोकसंसिद्ध, लोकयात्रानुगामी म्हणतात. फरक असतो तो
अनुभव घेण्याच्या प्रक्रियेत. लौकिक जीवनाचा अन्वय आपण व्यक्तिसंबंध भूमिेने
लावीत असतो- ते योग्यच असते; उलट, नाट्यानुभव लौकिकरूप असूनही त्याचा
अन्वय मात्र आपण आप-पर-तटस्थ भूमिका सोडून साधत असतो. असे जेव्हा
आपण करीत नाही तेव्हा आपण नाट्यानुभव घेत नसतो, वास्तवानुभवच घेत
असतो- इतका की कृष्ण ऑथेल्लोने गौर डेस्डिमोनाचा गळा दाबला म्हणून एखादा
गौर पुरुष ऑथेल्लोला गोळ्याही घालतो. त्या बिचाऱ्या श्वेत शिपायाला का हसायचे?
सूक्ष्मपणे अनेकदा आपणही असा कलेचा गळा दाबत असतो. साहित्यकृतीशी
समरस न होणे, कल्पकता नसणे, स्वत:च्याच खासगी सुखदु:खात चूर होणे ही
रसविघ्ने सर्वपरिचितच आहेत.
कलावस्तूचा आस्वाद घेताना रसिकाचा तिच्यात अनुप्रवेश झाला पाहिजे-
तटस्थ न राहता तादात्म्याने, मनाने त्याने कलाकृतीत प्रवेश केला पाहिजे. अर्थात
आपले मीपण सोडून. ऑपरेशन थिएटरमध्ये आणि देवळामध्ये शिरताना आपण
आपली पादत्राणे बाहेर काढून ठेवतो- ती कितीही मूल्यवान, स्वच्छ आणि प्रिय
आणि उपयुक्त असली तरी. मीपण असे उतरवून ठेवले की काय उरते? रितेपण?
पोकळी? नाही हो. खोळबुंथी गळून पडली की स्वयंभू मूर्ती साक्षात होते. अहो, हवे-
नको, सुख-दु:ख, मी-तू हे सारे आपल्या मूळ कंदावरचे लेप आहेत. टरफले. साल.
वालिफ. ती आतली मूर्ती निखळ मानवी असते. जात, वंश, धर्म, प्रांत, लिंग, भाषा
यापासून मुक्त- निखळ मानवी. मानवतेच्या आदिम गंधाने घमघमलेली. धर्म-अर्थ-
काम-मोक्ष किंवा विेशवात्सल्य-मानुषता-स्वातंत्र्य या भूीतून वृक्षासारखी
उगवलेली. जेव्हा या मूल्यांना वस्त्रहरण, स्त्रीहरण पोषक असते तेव्हा तिथे साहित्यात
नायक-नायिका प्रकटतात; वस्त्रहरण, स्त्रीहरण या मूल्यांना बाधक असते तेव्हा तिथे
खलनायक-खलनायिका प्रकटतात. यालाच साहित्यकृतीची मूल्यगर्भता असे
म्हणतात. मूल्यगर्भता आणि स्वसंबद्धता या दोन गोष्टी अगदी भिन्न आहेत.
मूल्यगर्भता सर्वव्यापी आहे तर स्वसंबद्धता व्यक्तिपरत्वे भिन्न आहे. मूल्यगर्भता
सर्वव्यापी असल्यामुळेच श्रेष्ठ कलाकृतीचा आस्वाद कुठल्याही काळात कुणालाही
घेता येतो. या स्वमुक्त भूमिकेलाच लौकिकभिन्न भूमिका असे म्हणतात. साहित्याचा
आस्वाद घेताना आपण लौकिकाचा लौकिकभिन्न भूमिकेवरून आस्वाद घेत असतो.
प्रत्यभिज्ञादर्शन
लौकिक भूमिका सोडून लौकिकभिन्न भूमिकेवर जायचेच कशाला, असा
आपल्याला प्रश्न पडतो. या प्रश्नाचे उत्तर स्पष्ट आहे. जिला आपण लौकिकभिन्न
भूमिका म्हणतो, जी जात-वंश-धर्म-प्रांत-लिंग यांच्यापासून मुक्त आहे तीच आपली
मूळ अवस्था आहे. स्वातंत्र्य-सर्जन-चारुता हे त्या मूळ अवस्थेचे स्वरूप आहे. मूळ
अवस्थेकडे जायला कष्ट पडत नाहीत, तिच्यापासून दूर गेलं की स्वातंत्र्य-सर्जनचारुता
हे सारे संपून हवे-नको, सुखदु:ख, मी-तू, संघर्ष यांचा प्रांत सुरू होतो. कष्ट
तिथे असतात.
एखादी पोर माहेरी जाते तेव्हा किती उल्हसित होते? आपल्या गावाचे दिवे
दिसले तरी प्रवासी हर्षित होतो. तसेच. आपल्या मूल्यगर्भ मूलस्वरूपाकडे जाणे
नेहमीच सहज, सोपे आणि आनंददायी असते. सोप्या गोष्टी आपण किती कठीण
करून ठेवल्या आहेत! एक प्रवासी प्रवासाच्या सुरुवातीला चांगला माणसासारखा
बसला होता. खुर्चीच्या पाठीला पाठ लावून, खुर्चीच्या हातावर हात ठेवून. हळूहळू
तो प्रवासी घसरत जातो, हातपाय पसरत जातो. शेजारची बाई म्हणते, ''भाईसाब,
जरा ठीकसे बैठिये।'' ती काही वेगळं सांगत नसते. त्याला त्याच्या मूळ बैठकीची,
माणूसपणाची आठवण करून देत असते! पटलं?
या विचारसरणीलाच तात्त्विक पातळीवर 'प्रत्यभिज्ञादर्शन' असे म्हणतात.
अभिनवगुप्ताचार्यांचे साहित्यशास्त्र काय किंवा श्रीज्ञानेशरांचे अमृतानुभव काय,
यांचा आधार हे प्रत्यभिज्ञादर्शनच होय. माझ्याही टिचभर आयुष्याचा तोच आधार
आहे; माझ्या समीक्षेचाही.
साहित्याची निर्मिती, साहित्यकृतीचे अस्तित्व आणि आस्वाद या तीन
वेगळ्या प्रक्रिया नसून ती एक सलग, एकजातीय प्रक्रिया आहे. या प्रक्रियेत
कलावंताचे मन, कलाकृतीची भाषा आणि रसिकाचे मन विशिष्टापासून मुक्त होऊन
आपल्या मूलसत्त्वात प्रकटत असते. हा त्यांचा उन्नत पुनर्जन्मच असतो. जे जीव या
उन्नत अवस्थेत अखंड वावरतात त्यांना जीवनमुक्त असे म्हणतात. हे जीवनमुक्त
जीवन परमेशराचे नाट्य आहे असे समजून त्याचा आस्वाद घेतात. हे जीवनमुक्त
कधीही सुतकी आणि जीवनाला पाठमोरे नसतात. उलट, जीवनव्यवहारात अनुप्रवेश
करून ते जीवनानंद अनुभवीत असतात. उलट, जे नाट्यगृहात, साहित्यक्षेत्रात फक्त
आस्वादप्रसंगी जीवनमुक्त होतात त्यांना आपण रसिक म्हणतो. हा वाङ्मयीन
पुनर्जन्माचा सिद्धान्त साहित्याला बंदिस्त करीत नाही. पूर्वी अध्यात्मशास्त्रीय प्रक्रिया
आणि परिभाषा जशीच्या तशी साहित्याला लावून साहित्यशास्त्राचे
आध्यात्मिकीकरण करण्यात आले आणि त्यालाच नवे साहित्यशास्त्र म्हटले गेले.
वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा सिद्धान्त सांगणारा नवअलौकिकतावाद अशी गल्लत करीत
नाही. प्रत्याभिज्ञादर्शनाची परिभाषा आणि प्रक्रिया समजावून घेऊन तिचा
साहित्यसापेक्षतेने विकास कसा करायचा हा विवेक नवअलौकिकतावाद जाणतो.
असाच साहित्यविवेक विभिन्न क्षेत्रांतील महापुरुषांचे अर्थशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय,
मानसशास्त्रीय विचार साहित्याला लावताना आपण केला पाहिजे- स्त्रीवाद,
विद्रोहवाद, अस्तित्ववाद, जनवाद, गांधीवाद, मार्क्सवाद यांचा विकास
साहित्यसापेक्षतेने व्हावयास हवा आहे.
महापुरुषांची मांदियाळी
कार्ल मार्क्स, सिग्मंड फ्रॉइड, महात्मा फुले, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर
सावरकर, भारतरत्न बाबासाहेब आंबेडकर या महानवांन अद्वितीय विचारसरणी,
जीवनसरणी मानवजातीला बहाल केली आहे. त्यांचे अपरंपार ण आपल्यावर
आहे. त्यांच्यापासून प्रेरणा घेऊन आधुनिक मराठीमध्ये अनेक अत्यंत प्रभावी
साहित्यप्रवाह निर्माण झाले आहेत. त्यामुळे आधुनिक मराठी साहित्य समृद्ध झाले
आहे. यापुढेही ते अधिकाधिक समृद्ध होणार आहे यात शंका नाही.
हे भविष्यकालीन मराठी साहित्य कसे असेल? उच्चतम अध्यात्म आणि
सूक्ष्मतम विज्ञान यांच्या संयोगातून ते उत्क्रांत होईल असे वाटते. उद्याचे मराठी
साहित्य त्यासाठी कदाचित अमृतानुभव (श्री ज्ञानेश्वर) आणि सापेक्षतावाद
(आइनस्टाइन) यांची मदत घेईल. मराठी विज्ञानकथाच नव्हे, एकूणच मराठी
साहित्य हिमतवंतीच्या सरोवरापाशी जाऊन पोहोचेल असे वाटते.
अध्यात्म आणि विज्ञान यांचे तत्त्व एकरूप झाले तरी त्यांची निर्मितिप्रक्रिया
आणि त्यांचे बाह्यांग कधीही एकरूप होऊ शकत नाही हे लक्षात ठेवले पाहिजे; कारण
विज्ञान कार्यकारण-विश्लेषण-वर्गीकरण- नामकरण या ज्ञानमार्गाने जात असते.
अभ्यासविषयाचे जितके सूक्ष्म विच्छेदन करू तितके त्या वस्तूचे आपले आकलन
यथार्थ होत जाते, अशी विज्ञानाची भूमिका आहे. त्यासाठीच ते समीकरणे आणि
आकारिक तर्कशास्त्र यांचा आधार घेत असते. ती एक अत्यंत सूक्ष्म आणि तीव्र
ज्ञानप्रक्रिया आहे, तर्कप्रक्रिया आहे. अशा प्रक्रियेतूनच आपण सत्यापर्यंत पोचतो,
अशी विज्ञानाची भूमिका आहे.
या तर्कप्रक्रियेशी समांतर पण कोटिश: भिन्न अशीही एक प्रक्रिया आहे जिला
'प्रातिभ आकलन' अशी संज्ञा आहे. महान कलावंतापाशी जीवनाचे असे प्रातिभ
आकलन असते. हे प्रातिभ आकलन इतर अनेक घटकांसह तार्किक प्रक्रियासुद्धा एक
घटक म्हणून स्वीकारत असते.
प्रातिभ आकलन कधीही अभ्यासविषयाचे पृथक्करण करीत नसते. ते
विश्लेषणाने सूक्ष्माकडे जात नसते तर व्यूहात्मकतेने विराटाकडे जात असतेसाक
ल्याकडे जात असते. अशा प्रातिभ आकलनातून जी निर्मिती होते ती केंद्रपूर्ण
व्यूहात्मक असते. तिचे आकलनही साकल्याने करायचे असते, घटकश: नाही.
तिचा प्रत्ययही क्रमबद्ध नसतो तर अक्रम असतो, साक्षात्कारासारखा असतो,
कालनिरपेक्ष असतो. कलाकृती लौकिक कालतत्त्वातून मुक्त होऊन स्वत:चे स्वतंत्र
कालतत्त्व निर्माण करीत असते. या स्वतंत्र कालतत्त्वातूनच लयतत्त्व आणि
चैतन्यपूर्ण व्यूह निर्माण होत असतात; त्यातूनच कलाकृतीला सौंदर्य प्राप्त होत
असते, असे नवअलौकिकतावाद मानतो.
नवअलौकिकतावाद
भारतीय साहित्यशास्त्रातील अलौकिकतावाद आणि पाश्चात्त्य
सौंदर्यशास्त्रातील सौंदर्यवाद यांचे एकीकरण आणि उन्नयन व वाङ्मयीन पुनर्जन्माचा
सिद्धांत नवअलौकिकतावाद अशा तऱ्हेने सिद्ध करू पाहतो. भविष्यकाळात या
वादाचा अधिकाधिक विकास होऊ शकेल.
व्यूह, समग्रता यांचे वर्णन भाषेद्वारे करण्याचा प्रयत्न केला की व्यूहात्मकता,
सकलता भंगते. त्यावर इलाज म्हणून धर्मक्षेत्रात चिन्हे-प्रतीके-विधी यांचे उपयोजन
केले जाते. वरवर पाहता कुंभ-पद्म-स्वस्तिक ही चिन्हे किंवा अग्नी प्रज्वलित करणेसप्तपदी-मम
म्हणणे इ. विधी जुजबी वा निरर्थक वाटतात; परंतु समाजाचे प्रातिभ
आकलन त्यातून प्रकटते, अवधान ठेवले की त्यांचा प्रतीकात्मक आशय आपणांस
चकित करतो. प्रातिभ आशय प्रतिभाशक्तीनेच ग्रहण करावयाचा असतो हे काय
सांगावयास हवे? साहित्यकृती हीदेखील प्रातिभ निर्मिती असते. तिच्यात शब्दवाक्य
े-विधाने हे सारे काही असते. त्यामुळे साहित्यकृती सलग आशयाचे विभाजन,
विश्लेषण करीत आहे असे वाटते. तसे समजून जो वाचक वाचन करतो, जो समीक्षक
समीक्षा लिहितो त्याच्या हाती वाङ्मयकृतीची समग्रता कधीच येत नाही. असा
माणूस जंगलात जाऊन फक्त झाडे मोजू शकतो. अहो, वनातील वृक्षांची काटेकोर
आणि काटेतोल गणना केल्याने काय अरण्याचा प्रत्यय येतो? त्रिकोणाच्या तीन रेषा
पुन:पुन्हा मोजल्याने काय त्रिकोण कळतो? फार तर तीन रेषा कळतील- नव्हे, एकच
रेषा तीनदा कळेल. त्रिकोण काय, अरण्य काय- खरे म्हणजे कुठलीही वस्तू काय ही
एक पूर्णता असते. त्या पूर्णतेचा प्रत्यय क्रमश: घ्यायचा नसतो; तिचा झटितीप्रत्यय
आला पाहिजे. तो टप्प्याटप्प्याने येतो असे जेव्हा वाटते तेव्हाही ते टप्पेही
व्यावहारिक कालसापेक्ष टप्पे नसतात; कलाकृतीने निर्माण केलेल्या कालाच्या
सापेक्षतेने ते उद्भवत असतात. त्यालाच 'कलाकृतीचा सान्निध्यगुण' असे म्हणतात.
साधे उदाहरण घ्या : ''रामा गावाला गेला'' असे म्हणून आपण थांबलो आणि
विलंबाने ''नाही'' असे म्हटले तर काय होईल? वाक्यभंग. यालाच सान्निध्यगुणाचा
अभाव म्हणतात. साहित्यकृतीमध्ये अविरल सान्निध्यगुण असावा लागतो असे
म्हणतात त्याचाही बोध आता होईल. साहित्यकृतीमध्ये सर्ग-पर्व-अध्याय-प्रकरणेप्रवेश-
अंक-चरण-कडवी इ. टप्पे असतात; परंतु त्यामुळे असान्निध्य हा दोष
निर्माण होत नाही. कारण ते कलाकृतिसापेक्ष काळाचाच आविष्कार करीत असतात.
त्यांचा व्यावहारिक काळाशी संबंध नसतो. हे जरा कठीण वाटते ना? नाही. याचा
बोध विचाराने नव्हे प्रतीतीने होईल. सौंदर्यशास्त्र-साहित्यशास्त्र-समीक्षा समजायला
प्रतीती आवश्यक असते, ही शास्त्रे प्रतीतिनिष्ठ असतात असे का म्हणतात ते आता
कळेल. ज्या समाजात साहित्यप्रतीती क्षीण असते, तिथे समीक्षाव्यवहारही उपेक्षित
राहावा यात नवल कसले?
महाराष्ट्र आणि बृहन्महाराष्ट्र
महाराष्ट्र शूरांचा देश आहे, महाराष्ट्र विचारवंतांचा देश आहे.
महाराष्ट्र जो सर्व राष्ट्रांसि राजे।
जयाच्या भयें व्यापिले लोक लाजें।।
असे कलाकवी मुक्तेशराने महटलेच आहे. रामदेवराय यादव-शिवाजी महाराज,
बाजीराव-राणी लक्ष्मीबाई, मुकुंदराज-रामदासस्वामी, आगरकर-र. धों. कर्वे ही
नक्षत्रपुंजांची मालिका किती मोठी आहे.
महाराष्ट्र हा संतमहंतांचा देश आहे. श्रीचक्रधरस्वामी-नामदेव महाराज,
एकनाथ महाराज-तुकाराम महाराज, गाडगे महाराज-तुकडोजी महाराज ही
संतमहात्म्यांची पवित्र नामे सर्वज्ञात आहेत. या महामानवांचे कार्य केवळ अध्यात्म,
धर्म, समाज अशा एकेका क्षेत्रापुरते मर्यादित नाही, ते सर्वव्यापी आहे. त्यांनीच
मराठी संस्कृतीला आकार आणि आधार दिला आहे.
चारशे व दीडशे वर्षांच्या परकीय राजवटीने जी मराठी संस्कृती आणि मराठी
भाषा नामशेष झाली नाही ती काय एलपीजी ऍटॅकने नष्ट होईल? उदारीकरण
(लिबरलायझेशन), खासगीकरण (प्रायव्हेटायझेशन), जागतिकीकरण
(ग्लोबलायझेशन). या आघातामुळे भाषिक आणि सांस्कृतिक बदल होतील पण
भाषा आणि संस्कृती समूळ नष्ट होणार नाहीत. संस्कृती, समाज, भाषा, बाह्य
आक्रमणाने नष्ट होत नसतात. त्या त्यांच्यांतील आंतरिक विसंवादाने उद्ध्वस्त
होतात. सोलझेनित्सिन या लेखकाने म्हटलेच आहे, जो समाज मनातले मनात ठेवतो
आणि जनात अगदी त्याच्या विरुद्ध बोलतो त्याची आत्मशक्ती क्षीण होत जाते; तो
समाज आतून पोखरला जातो आणि एक दिवस कोसळतो. मित्रांनो, यालाच
वाङ्मयीन आत्मनिष्ठेचा सामाजिक आविष्कार असे म्हणतात. आपल्या समाजात
अजून तरी पुरेशी सामाजिक आत्मनिष्ठा आहे. तिच्या बळावरच मराठी
भाषासाहित्य-संस्कृती टिकून राहणार आहे.
महाराष्ट्रातला सामान्य माणूस असामान्य आहे.
महापुरुष मार्गदर्शन करतात, पण पावले तर सामान्य माणसालाच उचलायची
असतात. ज्ञानेश्वर-नामदेव, नामदेव-त्यांची प्रभावळ, शिवबा आणि मावळे,
तुकोबा आणि वारकरी, रामदास आणि धारकरी, लोकमान्य आणि तेलीतांबोळी,
महात्माजी आणि सत्याग्रही, सावरकर आणि क्रांतिकारी- या महावृक्षाची प्रत्येक
डहाळ अशी जीवनदायी फळांनी लगडलेली आहे.
अहो, सामान्य माणूस अल्पसंतुष्ट असतो. श्रीनिवास विनायक म्हणतात
त्याप्रमाणे त्याला गोप-गोपी आणि वानर-वानरी होण्यातच धन्यता वाटते :
तुम्ही होता रामराजा।
आम्ही वानरांच्या फौजा।।
तुम्ही होता गोकुळीं।
आम्ही गोपाळांचे मेळीं।।
हा सामान्य माणूस आपली दैवते अचूक ओळखतो. भक्तिशक्तीच्या या दोन
नेत्रांनीच तर मराठी माणूस महाराष्ट्राची सरहद्द उल्लंघून महाराष्ट्राबाहेर स्थिरावला. त्या
परिसरालाच आपण बृहन्महाराष्ट्र असे म्हणतो. आजही दिल्ली, कोलकता, बनारस,
हैदराबाद, वडोदरा इ. शहरांध्ये मराठी सारस्वताची एकनिष्ठ उपासना करणारे
अनेक सारस्वत आहेत. मराठी साहित्यसंस्कृतीच्या सरहद्दीचे ते शिपाई आहेत.
देशाच्या सरहद्दी सुरक्षित ठेवल्या तरच देश सुरक्षित राहतो; तद्वत् साहित्यसंस्कृतीच्या
सीमांचे रक्षण केले तरच राज्य सुरक्षित राहते. आपले जे सरहद्दीचे शिलेदार मराठी
भाषेचे, मराठी साहित्याचे संगोपन करताहेत त्यांना आपण वेळोवेळी कुमक पुरवली
पाहिजे, त्यांना वेळोवेळी सन्मानचक्र बहाल केले पाहिजे. डॉ. निशिकांत मिरजकर
(दिल्ली), प्रा. वीणा आलासे (कोलकता), डॉ. सुरेश भृगुवार (वारासणी), प्रो. द.
पं. जोशी (हैदराबाद), डॉ. सुषमा करोगल (वडोदरा), श्रीराम कामत (गोवा) ही
नावे केवळ वानगीदाखल. याशिवाय पत्रकारिता, शिक्षण इ. क्षेत्रांत काम करणारी
अनेक गुणवंत माणसे बृहन्महाराष्ट्रात आहेत. अशा या गुणवान प्रदेशातील
गुणवंतांकडे आपण किती लक्ष देतो? नवभारत मासिकाच्या फेब्रुवारी २०१०च्या
अंकात डॉ. सुरेश भृगुवार यांनी या संदर्भात लेख लिहिला आहे. त्यात ते म्हणतात :
''मराठी भाषा व साहित्य यांची सेवा करणारी व्यक्ती ही महाराष्ट्रातील की
बृहन्महाराष्ट्रातील असा विचार करणेच उचित नव्हे; आणि असा विचार करायचा
झालाच तर बृहन्महाराष्ट्रीय व्यक्तीचे कौतुक अधिकच व्हायला हवे; कारण ती
प्रतिकूल परिस्थितीत आपले कार्य करीत असते... काशी हिंदू विेशविद्यालयात
मराठीबरोबरच तमिळ, तेलगू, कन्नड, नेपाळी याही भाषा शिकविल्या जातात. या
भाषांच्या विकासासाठी सुारे दहा वर्षांपूर्वी तामिळनाडू, आंध्र व कर्नाटक
सरकारांनी पाच-पाच लाख रुपयांची अनुदाने या विद्यापीठांना देऊन त्या रकमांच्या
व्याजांतून अध्यासन निर्माण करून प्रोफेसरचे पद व पीएच.डी. करण्यासाठी दोन
विद्यार्थ्यांना शिष्यवृत्तीची सोय केली आहे. नेपाळी सरकार स्वखर्चाने एका
लेक्चररची नियुक्ती करीत असते.... साठ वर्षांपासून जेथे मराठीचे अध्यापन
अव्याहतपणे होत आहे अशा काशी हिंदू विेशविद्यालयामधील दृढमूल मराठी
विभागाला आर्थिक आधार देण्याचे औचित्य व औदार्य महाराष्ट्र शासनाने का दाखवू
नये?'' (पृष्ठ क्र. ३०-३१)
डॉ. भृगुवार यांच्या या आवाहनाकडे शासनाने अवश्य लक्ष दिले पाहिजे.
राजकीय, सामाजिक, भौगोलिक अशा अनेक कारणांनी राज्याच्या सीमा
बदलत असतात. १९५६ साली विदर्भ व मराठवाडा हे प्रदेश द्वैभाषिकात समाविष्ट
झाले. मराठवाडा निजामशाहीत वाढला होता, तर नागपूर जुन्या मध्यप्रदेशाची
राजधानी होती. स्वाभाविकच तेथील मराठी संस्कृतीला उर्दू-हिंदीचा सुगंध
लाभलेला. हिंदी सिनो आणि हिंदी मालिका यांच्या प्रभावाने तो गंध आज
पुण्यापर्यंत येऊन पोचला आहे! महाराष्ट्राची ही विविधरूपी संस्कृती आपण
जोपासली पाहिजे. कशी? एक साधे उदाहरण : भाषेचे. विदर्भ-खानदेश-मराठवाडा
येथे 'साबुदाण्याची उसळ' असे म्हणतात, त्याला हसू या नको. अरे, शुभ्र, सात्त्विक
असा तो पदार्थ झाला की त्याला पुणेरी भाषेत म्हणायचे 'साबुदाण्याची खिचडी';
आणि तांबूस, खमग झाला क त्याला म्हणायचे 'साबुदाण्याची उसळ'. काय?
यालाच मी समृद्धी म्हणतो. अशी शब्द-पदार्थ-रीतिरिवाज-सण यांची असंख्य
उदाहरणे आहेत. असे झाले की आपोआप सांस्कृतिक सामंजस्य आणि समन्वय
प्रस्थापित होत जातो.
हेच तर मराठी संस्कृतीचे आणि भारतातील संस्कृतीचे वैशिष्ट्य आहे :
समन्वय आणि सुसंवाद.
बदलत्या तू-प्रहरांशी सुसंवाद साधायला आयुर्वेद आपल्याला शिकवितो.
बदलत्या तू-प्रहरांशी सुसंवाद साधायला आपल्याला भारतीय संगीत
शिकविते.
-आणि अविचल अनादिअनंत तत्त्वाशी एकरूप व्हायला आपल्याला
प्रत्यभिज्ञादर्शन शिकविते.
शासनाचे सांस्कृतिक धारण कसे असावे, याचे उत्तरही येथे सहज हस्तगत
होते: ते बहुसमावेशी, लवचिक व आधुनिक जगाशी सुसंवादी असावे. शासनावर
पक्षीय भूमिकेवरून टीका करणे वेगळे व शासनाची तात्त्विक स्तरावरून चिकित्सा
करणे वेगळे. एकाधिकारशाही- मग ती कोणत्याही रंगाची असो- साहित्यविेशाचे व
साहित्यिकाचे निर्मितिस्वातंत्र्य सीमित करते; उलट, व्यक्तिस्वातंत्र्य व त्याचाच
राजकीय आविष्कार अशी लोकशाहीप्रणाली, साहित्यिकाच्या
अभिव्यक्तिस्वातंत्र्यावर घाला घालीत नाही; आणि अनवधानाने तिने तसा तो
घातलाच तर त्याचा लोकशाही मार्गानेच आपणांस प्रतिकारही करता येतो.
हुकूमशाहीमध्ये त्यासाठी साहित्यिकाला शहीद व्हावे लागते; लोकशाहीच्या
विरोधकांना ते हवेच असते : विरोधकांनी तत्त्वनिष्ठ राहून शहीद व्हावे म्हणजे
आयताच आपला मार्ग निष्कटंक होईल, असा हुकूमशाहीचा कावा असतो- तो
आपण ओळखला पाहिजे व वेळप्रसंगी कृष्णनीती व शिवनीती यांचा अवलंब केला
पाहिजे; श्रीकृष्ण व शिवबा ही अखिल भारतीयांची, अखिल महाराष्ट्राची परम दैवते
आहेतच ना!
अभिव्यक्तिस्वातंत्र्यवादी प्रतिभावंत जाणीवपूर्वक विशिष्ट विचारसरणीस
विरोध करीत असतो; त्यासाठी तो सर्वस्वाचे मोल देण्यासही सिद्ध असतो; बा. सी.
मर्ढेकर, दुर्गाताई भागवत ही अलीकडच्या काळातील अशी उदाहरणे होत; उलट
एखाद्या लेखकाच्या हातून अज्ञानाने, अनवधानाने, साहित्यविषयक चुकीच्या
समजुतीने श्रद्धाभंग झाला तर त्याला अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य न म्हणता 'पावित्र्यविडंबन'
म्हणावयाचे असते. पावित्र्यविडंबन व अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य या दोन संकल्पनांतील
साहित्यशास्त्रीय भेद आता आपण नीट जाणून घेतला पाहिजे.
ज्ञानात्मकता क्षीण होणे व भावनिकता वाढणे हे वैचारिक अराजकाचे लक्षण
होय. ललित वाङ्मयातही ज्ञानात्मकतेला अनन्य स्थान असते- 'एडिपस
रेक्स'पासून 'सोडवण'पर्यंतच्या साहित्यकृतींतील ज्ञानात्मक घटक अव्हेरून कसे
चालेल? संगीतादी कलांच्या माध्यमाइतके साहित्यकलेचे माध्यम तीव्र
नसल्यामुळेच असा ज्ञानात्मक संस्कार साहित्यकला करू शकते, हे न कळल्यामुळे
मराठीतील सौंदर्यशास्त्रीय लेखनात 'लय' गोंधळ झाला आहे!
बरे, सौंदर्य शास्त्रात गोंधळ झाला तो झाला; त्याचा परिणाम ललित
लेखनावरही झाला : ललित साहित्यकृती म्हणजे भावनांची गुठळी असे
साहित्यिकांना- विशेषत: कवींना- वाटू लागले. मग काय, भावना उचंबळली की
लिहा कविता- मग ती भावना क्रांतीची असो, प्रीतीची असो वा नीतीची असो- लिहा
कविता. अरे बाबा, या भावनांचा शोध घेणारी शास्त्रे आहेत त्यांच्याकडे थोडे लक्ष
द्याल की नाही? बर्टोल्ड ब्रेख्तने तर नाट्यकलेत भावनिक प्रत्यय त्याज्य मानून
वैचारिक प्रत्ययाला आणि वैचारिक प्रतिक्रियेलाच महत्त्व दिले आहे; एव्हढ्यानेही
भागत नाही, कविराज. गायक-नर्तक असे म्हणतात का, की आम्हाला घशातून
आवाज काढता येतो, शारीरिक हालचाली करता येतात तर आम्ही आपसूकच
गायक-नर्तक होऊ? नाही. ते प्रशिक्षण घेतात, रियाज करतात; वर्षानुवर्षांच्या
साधनेनंतर आपली कला पेश करतात. कवींनीही अशी शास्त्रसाधना व कलासाधना
केली पाहिजे.
काय सांगू तुम्हाला! आजचा मराठी साहित्यिक आपले प्रज्ञाबळ आणि
प्रतिभाबळच विसरला आहे. अनुभव आला लिहा कथा-कविता. इतिहास-चरित्रपुराण
यातील कथावस्तू घ्या, लिहा त्यावर नाटक-कादंबरी. ललित साहित्याचे नाते
घटितापेक्षा सत्त्वा-तत्त्वाशी अधिक असते; सत्त्वग्रहणासाठी प्रतिभेची,
तत्त्वग्रहणासाठी शास्त्रज्ञानाची गरज असते; नुसते सांस्कृतिक गंड, घोषवाक्ये,
हळुहळुती भाषा, एकेरी रूपके, भळभळती भावना, तार्किक प्रतीके यातून
व्याजसाहित्य जन्मास येते, हे आपण कधी लक्षात घेणार?
इथे दिग्दर्शक, संगीतकार, गायक यांनाही इशारा द्यायला हवा : नाटक,
पटकथा, कविता निवडताना त्यांनी आपली वाङ्मयीन अभिरुची जागृत ठेवली
पाहिजे. हिणकस, पोकळ, अनुकरणात्मक, फॅशनबेल साहित्यकृतींना त्यांनी
दिग्दर्शनकौशल्याने वा गानकौशल्याने लोकप्रिय केल्यास वाङ्मयक्षेत्रात मूल्यभ्र
आणि अभिरुचिभ्र निर्माण होईल- असे होता कामा नये; ललितकला व
साहित्यकला यांच्यांतील समायोजनाकरिता हे भान आवश्यक आहे.
श्री ज्ञानेश्वर-मर्ढेकर-गणेश त्र्यंबक या माझ्या गुरूंनी मला एवढे ज्ञान दिले; ते
ओंजळीत घेऊन समाजपुरुषाच्या चरणी मी अर्पण करीत आहे.
इथे माझ्यासमोर तो समाजपुरुष साक्षात झाला आहे त्याचेच ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ
प्रतिनिधी माझ्या शेजारी स्थानापन्न झाले आहेत. या सर्व मानवाईक मंडळींना व तुम्हां
सर्व प्रिय श्रोतृजनांना मन:पूर्वक प्रणाम करून मी माझे बोलणे पूर्ण करतो.
-डॉ. द. भि. कुलकर्णी
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
तिने यावे बरसत तिने यावे बरसत
विजेचे फूल माळून तिने यावे बरसत
घराघरावर चढलेली बुरशी गल्लीकुचीतून जीवन अस्ताव्यस्त
सारेच सगेसोयरे येता-जाता करतात कशा टुचूकल्या
कापल्या करंगळीवर मुतत नाहीत अशा या सांप्रदायिक खेळकावण्या सावल्या
मी कसा एवढा 'पडेल' माझ्या अंत:करणात तिच्या प्रखर तेजाचा धिंगाणा
या भूल्याभटक्यांच्या आंधळ्या गारूडगोंधळातून माझ्या जोडीला येणार नाही
नाही का एखादा दिवाणा
रोजच 'कोडगा' होऊन मेरीच्या पोरासारखी या जुलूमावर करतो
आतोनात प्रीती
'अय-यागय-याचं झवणं हाय त्याला आसलंगीबी उभं करू नाय' असं
म्हंते माझ्याच रक्ताची वस्ती
यांना ग्यानच कसे नाही? म्हणून हे घेतात रंगलेल्या तोंडांचे
झिंगलेल्या बाटल्यांचे मुके दिनरात
गाण्यात जीव धरेना असे राजरोस जालीम विष पेरलेले यांच्या शरीरात
तरीही म्हंतो दुव्याने दुवा पेटेपर्यंत काढीत राहीन खलसत
विजेचे फूल माळून मात्र तिने यावे बरसत तिने यावे बरसत
नामदेव ढसाळ
गोलपिठा
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
घराघरावर चढलेली बुरशी गल्लीकुचीतून जीवन अस्ताव्यस्त
सारेच सगेसोयरे येता-जाता करतात कशा टुचूकल्या
कापल्या करंगळीवर मुतत नाहीत अशा या सांप्रदायिक खेळकावण्या सावल्या
मी कसा एवढा 'पडेल' माझ्या अंत:करणात तिच्या प्रखर तेजाचा धिंगाणा
या भूल्याभटक्यांच्या आंधळ्या गारूडगोंधळातून माझ्या जोडीला येणार नाही
नाही का एखादा दिवाणा
रोजच 'कोडगा' होऊन मेरीच्या पोरासारखी या जुलूमावर करतो
आतोनात प्रीती
'अय-यागय-याचं झवणं हाय त्याला आसलंगीबी उभं करू नाय' असं
म्हंते माझ्याच रक्ताची वस्ती
यांना ग्यानच कसे नाही? म्हणून हे घेतात रंगलेल्या तोंडांचे
झिंगलेल्या बाटल्यांचे मुके दिनरात
गाण्यात जीव धरेना असे राजरोस जालीम विष पेरलेले यांच्या शरीरात
तरीही म्हंतो दुव्याने दुवा पेटेपर्यंत काढीत राहीन खलसत
विजेचे फूल माळून मात्र तिने यावे बरसत तिने यावे बरसत
नामदेव ढसाळ
गोलपिठा
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी
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हंस-दमयंती
Dhingana
an alcoholic
- Pravin Kulkarni
- Pune, Maharashtra, India
- Hi.. I am Pravin and I am an alcoholic....