Sunday 31 January 2010

माया {चित्रकार विन्सेंट वानगॉग कि कल्पित प्रेमिका माया से}



अप्सरा ओ अप्सरा!
शहजादी ओ शहजादी!
विन्सेंट की गोरी!
तुम सच क्यूँ नही बताती?

यह कैसा हुस्न और कैसा इश्क!
और तू कैसी अभिसारिका!
अपने किसी महबूब की
तू आवाज क्यों नहीं सुनती?

दिल में एक चिनगारी डालकर
जब कोई साँस लेता है
कितने अंगारे सुलग उठते है,
तू उन्हें क्यों नही गिनती?

यह कैसा हुनर और कैसी कला!
जीने का एक बहाना है
यह तखय्यल का सागर
तू कभी क्यों नही नापती?

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहजादी ओ शहजादी!
तेरा ख्याल न आर देता है
न पार देता है

सूरज रोज ढूंडता है
मुंह कंही दिखता नही
तेरा मुंह, जो
रात को
इकरार देता है

तड़प किसे कहते है,
तू यह नही जानती
किसीपर कोई अपनी
जिन्दगी क्यों निसार करता है

अपने दोने जहाँ
कोई दाँव पार लगता है
नामुराद हँसता है
और हार जाता है

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहजादी ओ शहजादी!
इस तरह लाखों खयाल
आयेंगे चले जायेंगे

तेरा यह सुर्ख जहर
कोई रोज पी लेगा
और तेरे नक्श हर रोज
जादू कर जायेंगे

तेरी कल्पना हँसेंगी,
कोई रात-भर तडपेगा
और बरस के बरस
इस तरह बीत जायेंगे

हूनर भूका है, ऐ रोटी!
प्यार भूका है, ऐ गोरी!
तेरे कितने वानगॉग
इस तरह मर जायेंगे!

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहजादी ओ शहजादी!
हुस्न कैसा खेल है
कि इश्क जीत नही पाता

रात जाने कितनी कलि है--
उम्र को भी जला के देख लिया
चाँद-सूरज कैसे चिराग है
कोई जल नही पाता

ऐ अप्सरा! तुम्हारा बुत
और गेंहू कि एक बाली
वह कैसी धरतियाँ है
कुछ भी उग नही पाता

हुनर भूखा है, ऐ रोटी!
प्यार भूखा है, ऐ गोरी!
निजाम का पेड़ कैसा है,
जिसमे कोई फल नही आता....


अमृता प्रीतम
संकलक:प्रवीण कुलकर्णी



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