Sunday, 9 May 2010

दूसरा बनबास - क़ैफ़ी आज़मी


राम बनबास से जब लौटके घर में आए

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए

रक़्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा

छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा

इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए

जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां

प्‍यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां

मोड़ नफरत के उसी राह गुज़र से आए

धर्म क्‍या उनका है क्‍या ज़ात है यह जानता कौन

घर न जलता तो उन्‍हें रात में पहचानता कौन

घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए

शाकाहारी है मेरे दोस्‍त तुम्‍हारा ख़ंजर

तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्‍थर

है मेरे सर की ख़ता जख़्म जो सर में आए

पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे

कि नज़र आए वहां खून के गहरे धब्‍बे

पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे

राजधानी की फ़िजां आई नहीं रास मुझे

छह दिसंबर को मिला दूसरा बास मुझे

संकलक:प्रवीण कुलकर्णी

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हंस-दमयंती

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